सूत्र :साक्षाच् चोभयाम्नानात् 1/4/24
सूत्र संख्या :24
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (साक्षात्) स्पष्टता से (च) भी (उभय) दोनों (आम्नानांत्) वेद उपदेश मिलेने से।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि श्रुति ने आत्मा शब्द से दोनों अर्थ निकलते देखकर जगह-जगह दोनों कारणें का उपदेश इस कारण किया है कि कही ईश्वर को पराधीन मानकर सृष्टि के उत्पन्न करने में असमर्थ (मजबूर) न स्वीकार किया जावे। जिस प्रकार मनुष्य शरीर के आधिन नहीं होता, क्योंकि मनुष्य, जीव और शरीर संयोग का नाम है; जिस प्रकार राजा और राज्य प्रजा के आधी नहीं होता, क्योंकि राजा कहते ही उसको हैं, जिसकी प्रजा और राज्य हो; इसी प्रकार आत्मा भी सृष्टि करने में प्रकृति के आधीन नहीं, क्योंकि वह उसके पास सदैव से है।
प्रश्न- जबकि परमात्मा प्रकृति के बिना जगत् को नहीं बना सकता, तो वह जगत् रचने के कारण प्रकृति का मुहजताज क्यों नहीं?
उत्तर- जिसकी आवश्यकता होती है, उसके उत्पन्न करने की आवश्यकता होती ह; जिसको बनाने की आवश्यकता नहीं होती, वह उसका मुहताज नहीं होता। जैसे-जिसके पास खाने को रोटी न हो, उसको रोटी का मुहताज कहते हैं; परन्तु जिस धनाढच के के पास रोटी विद्यमान है, यद्यपि खाता वह भी हैं; परन्तु उसको रोटी का मोहताज नहीं कहते। निदान जिस परमेश्वर को प्रकृति के उत्पन्न की आवश्यकता होगी, वह तो प्रकृति का मोहताज कहलायेगा। जिसके पास नित्य ही प्रकृति विद्यमान है, वह उसका मोहताज कैसे हो सकता है?
प्रश्न- यदि परमेश्वर के पास प्रकृति न हो, तो वह जगत् उत्पन्न नहीं कर सकता; इस कारण वह प्रकृति का मोहताज ही कहावेगा?
उत्तर- यदि परमेश्वर के पास प्रकृति न हो, तो वह परमेश्वर ही नहीं कहला सकता, क्योंकि परमेश्वर के अर्थ सबसे अधिक वस्तु के स्वामी के हैं। जिसके पास मिलकियत नहीं वह मालिक कैसा? परमेश्वर उस अवस्था में कहलाता है, जबकि उसकी प्रकृति अनादि है।
प्रश्न- परमेश्वर में प्रकृति उत्पन्न करने की शक्ति है, इस कारण प्रकृति रूप, गुण की शक्ति होने से वह स्वामी कहाता है।
उत्तर- यह तो दोनों ओर मान्य है कि जगत् को प्रकृति से परमेश्वर उत्पन्न करता है। एक दावा यह है कि उस स्वामी की प्रकृति अनादि है, और दूसरी यह है कि उसको प्रकृति उत्पन्न करने की शक्ति है। प्रथम अवस्था में मोहताज नहीं कि वस्तु उपस्थित है, दूसरी अवस्था में जितनी देर उत्पन्न करने में लगेगी, उतने समय तक पराधीन मानना पड़ेगा, क्योंकि ‘‘अल ऐहतयाज अज अल ईजात’’का न्याय प्रसिद्ध है। उस स्थान पर इच्छुककत्र्ता मानना पड़ेगा ‘इच्छुककत्र्ता’ इस पर जितनी शंकायें उत्पन्न होवेंगी, उनका उत्तर मिलना असम्भव है; निदान तीनों को अनिादि मानना उचित है। जो एक आत्मा के शब्द से प्रकट होते हैं।
प्रश्न- ब्रह्मा ने आत्मा को बनानया, इससे आत्मा का उत्पन्न होना ज्ञात होता है; उधर आत्मा को नित्य बतलाया गया है।