सूत्र :वाक्यान्वयात् 1/4/19
सूत्र संख्या :19
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (वाक्य) वचन के (अन्वयात) अन्वय से।
व्याख्या :
भावार्थ- वृहदारण्यक उपनिषद् में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा है कि-ऐ मैत्रेयी! पति की इच्छा को प्यार नहीं करती; किन्तु आत्मा की इच्छा से। ऐसे ही संतान की इच्छा से सबको प्रेम करते हैं। आत्मा ही ऐ मैत्रेयी! देखने, सुनने और जानने के योग्य है। केवल एक आत्मा के जानने ही से सब जगत् जाना जाता है। यहाँ पर शंका उत्पन्न होती है कि इस जगह जीवात्मा को देखने, सुनने और जानने योग्य बताया है वा परमात्मा को? प्रेम रखने से तो भोगनेवाला जीवात्मा ज्ञात होता है और आत्मा के जानने से सबका ज्ञान हो जाने के कारण परमात्मा का बोध होता है; परन्तु पुर्णतया विचार करके देखते हैं, तो उस थान पर परमात्मा ही का ग्रहण होता है; क्योंकि सारे वाक्य का अर्थ उसी में पाया जाता है, क्योंकि याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा कि जिससे मुक्त न हो, उससे मुझे लाभ न होगा; इस कारण जिससे मैं मुक्त हो जाऊँ आप उसी का उपदेश करें। उस पर याज्ञवल्क्य ने यह सब आत्मोपदेश किया; क्योंकि मुक्ति सिवाय परमात्मा के जानने के हो नहीं सकती। इस कारण यहाँ आत्मा शब्द से परमात्मा ही लेना चाहिए।
प्रश्न- यदि आत्मा शब्द से परमात्मा ही लिया जावे, तो क्या परमात्मा के कारण धन, संतान, स्त्री आदि प्रिय होती हैं, यह किस प्रकार संभव है, इस कारण जीवात्मा लेना चाहिए?
उत्तर- क्योंकि जीवात्मा में आनन्द की न्युनता है, जिससे उसकी न्यूनतापूर्ण हो, उसकी इच्डा होती है। इसी कारण धन में आनन्द समझकर उसकी इच्डा करता है, स्त्री में आनन्द समझकर उसकी इच्छा करता है; तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इच्छा आनन्द के कारण होती है और आनन्द सिवाय परमात्मा के दूसरे में है नहीं, इस कारण सब इच्छायें परमात्मा के ही लिये हैं। इस पर आश्मरथ्य आचार्य अपनी सम्मति देते हैं।