सूत्र :जगद्वाचित्वात् 1/4/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (जगत्) संसार का (वाचित्यात्) प्रकट करनेवाला होने से।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि उस जगह पुरूष शब्द जगत् के अर्थों में आया है और जगत् को ही उसका कर्म अर्थात् उसे बना हुआ बतलाया है; इस कारण न प्राण ही जगत्कर्ता हो सकते हैं जैसा कि प्रथम सिद्ध कर चुके हैं और न जीव कर्ता कहला सकता है। जगत्कर्ता केवल ब्रह्मा की हो सकता है, वही लेना चाहिए।
प्रश्न- वहाँ पुरूषों को कर्ता बतलाया है, जगत् का कर्ता नहीं बतलाया।
उत्तर- पुरूष का एक बड़ा भाग है; इस कारण जगत् के अर्थों में ही पुरूष शब्द प्रथम है जैसे कहता है कि रणजीत सिंह लाहौर का राजा था, वहाँ उसका अर्थ जिसमें देश लाहौर राजधानी है, उस सब देश से है; क्योंकि पुरूष की बनावट सबसे उत्तम है। इस कारण पुरूष शब्द जगत् के अर्थों में आया है।
प्रश्न- पुरूष तो जीव और ब्रह्मा का नाम है। न तो ब्रह्मा का कर्ता ब्रह्मा हो सकता है और न जीवों का; इस कारण यह कथन उचित नहीं।
उत्तर- क्योंकि जीव को पुरूष उस समय कहते हैं, जो परु अर्थात् शरीर में रहता है और शरीर के बिना उसकी पुरूष संज्ञा हो नहीं सकती; इसक कारण शरीर का कर्ता ब्रह्मा हो सकता है न कि जीवों का। इस वास्ते शरीर का कर्ता होने से वह पुरूष का कर्ता कहाता है; इस कारण ब्रह्मा जो जगत्कर्ता है, वह ही जानने योग्य है।
प्रश्न- जबकि उस वाक्य में आगे प्राण लिखें हैं, जो जीव का लिंग अर्थात् चिन्ह है; प्राण मुख्य प्राणों से अर्थ है, इससे ब्रह्मा जानने योग्य क्यों लिया जावे?