सूत्र :कारणत्वेन चाकाशादिषु यथाव्यपदिष्टोक्तेः 1/4/14
सूत्र संख्या :14
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (कारणत्वेन) श्रुति में कारण पाने से (आकाशादिषु) आकाश, अग्नि आदि में (यथा) जैसे (व्यपदिष्टोक्तेः) उपदेश करते हुए कहा है।
व्याख्या :
भावार्थ- वेदान्त में ब्रह्मा को जगत् का कारण कहीं नहीं कहा, केवल आकाश, तेज आदि का कारण न ब्रह्मा जगत् का कत्र्ता है, न जगत् ब्रह्मा का विषय है; क्योंकि ब्रह्मा का ज्ञान एक-सा बतलाया गया है। श्रुति में उत्पत्ति के संबंध जो विरोध है। अर्थात् प्रत्येक वेदान्त के ग्रन्थ में पृथक्-पृथक् प्रकार की सृष्टि की उत्पत्ति देखी जाती है और प्रवाह भी अनेक प्रकार के हैं। कहीं लिखा है कि आत्मा से आकाश उत्पन्न हुआ, यहाँ पर सा की उत्पत्ति बतलाई; कहीं बतलाया कि उसने तेज को उत्पन्न किया; कहीं बतलाया कि उसने प्राण उत्पन्न किया, यहाँ प्राण से उत्पत्ति का प्रवाह आरम्भ हुआ है। कही सीधे मनुष्यों की उत्पत्ति बतला दी परमात्मा ने उन मनुष्यों को उत्पन्न किया; कहीं यह बतलाया कि यह सृष्टि अभाव से उत्पन्न हुई है अर्थात् असत् कार्यवाद बतलाया है। कहीं सृष्टि सत् से उत्पन्न बतलाकर सत् कार्यवाद को प्रकट किया है और सत्रअसत् कार्यवाद का खण्डन किया है कि असत् से सत् कैसे हो सकता है; कहीं स्वयम् जगत् बन जाना लिखा है और कहा कि वह स्वयम् नाम रूप से विकार को प्राप्त हो गया; इस प्रकार वेदान्त के उपदेश में विरोध होने से पाया जाता है कि ब्रह्मा सृष्टिकत्र्ता नहीं; किन्तु सृष्टि का कत्र्ता कोई दूसरा ही है, जो स्मृति और न्याय से सिद्ध है अर्थात् प्रकृति जगत् का कारण है। जब कि वेदान्द के ग्रन्थों का स्वयम् मतैक्य नहीं, तो किस प्रकार कहा जा सकता हैं उस पर कहते हैं कि यह जितने वाद हैं, वह वेदान्त के सिद्धान्त को पुष्ट करने के कारण हैं; ताकि कोई मतवाला आकाकर वेदान्त मत का खण्डन न कर सके; क्योंकि यदि मनुष्य ने तर्क को सुना न हो, तो उसके सुनते ही बजाय उत्तर देने के वह घबरा जाता। यदि सुनी हुई बात हो, तो उसे कोई घबराहट नहीं होती, स्पष्टतया उत्तर दे देता है; इस कारण वेदान्त के विद्वानों में जितने वाद हो सकते हैं, अपने ग्रन्थों में पहिले से विद्यमान कर दिये हैं लगभग एक सौ आठ वाद वेदान्द के आचार्यों ने दिखलाकर उनका खण्डन किया है, जिसको दूसरी पुस्तक में प्रस्तु करेंगे, उसका उत्तर सूत्रकार देते हैं।