सूत्र :न संख्योपसंग्रहादपि ज्ञानाभावाद् अतिरेकाच् च 1/4/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (न संख्योपसेग्रहात्) संख्या में आ जाने से (अपि) भी (नानाभावात्) एक से अधिक सत्तायें होने से (अतिरेकात्) और गुणों से पृथक् होने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि यह कहा जावे कि श्रुतियों ने जो संख्या (तादाद) बतलायर है, वही संख्या सांख्य में भी पाई जाती है। उस संख्या के कारण ज्ञात होता है कि प्रकृति से जगत की उत्पत्ति सांख्य ने जो बतलाई है, वह भेद से ही ली गई है, यह सत्य नहीं; क्योंकि इस प्रकार बहुत सी स्वतन्त्र सत्तायें स्थापित हो जाती हैं। वास्तव में सब सत्ताये परमात्मा के अधिकार में हैं। प्रकृति परमात्मा की शक्ति तो पीछे स्वीकार ही कर चुके हैं और यकह भी बतला चुके हैं कि ब्रह्मा का भेद भी मान चुके हैं केवल इन सूत्रों का यह अर्थ यह है कि जीव और प्रकृति परमात्मा के साथ ही सम्मिलित है। जैसे-एक राजा कहने से उसका देश और प्रजा स्वयम् आ जाती है; क्योंकि क्योंकि बिना देश व प्रजा के सिका स्वामी और बिना प्रजा के किसका राजा हो सकता है, ऐसे ही आत्मा शब्द का अर्थ ही व्यापक है।, जो बिना व्याप्य के हो नही सकता। इस जगह जो कुछ खण्डन किया जा रहा है, वह प्रकृति की स्वतंत्रता का है कि वह स्वयम् कुछ नहीं कर सकती और संख्या के अन्दर यह दोष बतलाते हैं कि चैबीस तत्त्व तो अचेतन हैं और पच्चीसवाँ पुरूष अर्थात् जीवात्मा चेतन है; परन्तु संख्या न सजातियों का हुआ करता है प्रकृति के तत्त्व और पुरूष सजातीय नही हो सकते। संख्या के अतिरिक्त ब्रह्मा को सम्मिलित करने से संख्या छब्बीस हो जाती है। ब्रह्मा को न मानने से सांख्य दर्शन के सूत्रों को स्वीकार किया है, उसका खण्डन होता है; इस कारण श्रुति के अन्दर संख्या मिलने से भी प्रकृति को जगत्कर्ता विचार करना भी जैसा कि प्रकृतिवादी मानते हैं, सत्य नहीं।
प्रश्न- क्या इससे सांख्य और वेदान्त में विरोध नहीं प्रतीत होता?