सूत्र :तदधीनत्वाद् अर्थवत् 1/4/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (तत्) उसके (अधीनत्वात्) अधिकार में होने से (अर्थवत्) अर्थवाली है।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि इस जगत् का कारण नाम रूप से रहित अव्यक्त कहता है, तो उसके कार्य शरीर का, जो उसका स्वरूप ही है, अव्यक्त कहलाना असम्भव है। इस पर आचार्य विचार्र करके सह कहते हैं कि यहद हम स्वतंत्र प्रकृति को कारण स्वीकार करें, तो प्रधान कारणवाद वा नास्तिकवात कहला सकता है; परन्तु परमात्मा के अधिकार से प्रकृति में कार्य होना तो हम भी स्वीकार करते हैं; इस कारण वह अवश्य अर्थवाली ज्ञात होती हैं उसके बिना परमात्मा का जगत् उत्पन्न करना सिद्ध नहीं होता; क्योंकि शक्ति रहित परमात्मा की किसी कर्म में प्रवृत्ति सिद्ध नहीं होती। सज्जनों ने कहा है-वे मनुष्य जो यह कहते हैं कि वेदान्त दर्शन के भाष्य करनेवाले शंकाराचार्य प्रकृति को नहीं मानते, वे सामने आयें और इस सूत्र के भाष्य को देखें कि वह प्रकृति का परमात्मा के अधीन अर्थात् अधिकार में स्वीकार करते हैं और यह नियम भी है कि उपादान कारण कर्ता के सर्दव अधिकार में होकर कार्य बनता है; स्वतंत्र अर्थात् स्वयं नहीं बना सकता। जो मनुष्य सांख्य और वेदान्त में विरोध स्वीकार करते हैं, उन्हें सांख्य का वह सूत्र जिसमें बतलाया है कि कर्म जगत् का कारण नहीं; क्योंकि उसमें उपादान कारण होने की योग्यता नहीं और वेदान्त के उस सूत्र पर विचार करना चाहिए, जिससे स्पष्ट पाया जातार है कि सांख्य उपादान कारण का निरूपण करता है और वेदान्त निमित्त कारण का; निदान दोनों अपने-अपने सिद्धान्त पर अचित कह रहे है। दर्शन में जो मनुष्य विरोध बतलाते हैं, वह केवल दर्शनों को न जानने के कारण है।
प्रश्न- यदि प्रकृति और पुरूष एक सविकार किये जावें, तो क्या हो नहीं सकता।