सूत्र :आनुमानिकम् अप्य् एकेषाम् इति चेन् न शरीर-रूपक-विन्यस्त-गृहीतेर् दर्शयति च 1/4/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रथम तीन पादों में ब्रह्मा के जानने के इच्छुकों के कारण ब्रह्मा के लक्षण यह बतलाये कि जिससे यह सब सृष्टि की उत्पत्ति होती है, स्थित रहती है और प्रलय होती है, वह ब्रह्मा है। इस लक्षण में प्रकृति (माद्दा) वा परिमाणु भी सम्मिलित हो सकते हैं उसको यह सिद्ध करके ज्ञान के अनुसार क्रिया प्रकृति में नहीं हो सकती; इस कारण वेद ने उसको कर्ता नहीं बतलाया। अब शेष शंकाओं का भी उत्तर देते हैं।
प्रश्न- यह किस प्रकार सत्य हो सकता है प्रकृति जगत् का कर्ता नहीं; क्योंकि कठोपनिषद् में प्रकृति को जगत् का कारण है, जिससे अनुमान होता है कि प्रकृति जगत् का कर्ता है।
पदार्थ- (अनुमानिकम्) अनुमान से सिद्ध होनेवाला (अपि) भी (एकेषाम्) एक शाखावालों के मत में (इतिचेत) यदि दोष हो (न) नहीं (शरीररूपकम्) शरीर के अलंकार से (विन्यस्त) त्याग (गृहीतेः) ग्रहण करने से (दर्शयति) दिखलाये जाने से (च) भी।
व्याख्या :
भावार्थ- यदि कठोपनिषद् में यह देखकर कि महत्1 अर्थात् मन से परे अर्थात् उसका कारण अव्यक्त अर्थात् प्रकट से रहित प्रकृति है और कारण के लिये यह नियम है कि वह पूर्व विद्यमान हो और इसके कारण ही कार्य की स्थिति हो, जबकि इन्हें आदि सृष्टि का हेतु स्थिति का कारण प्रकृति है और इससे प्रथम विद्यमान भी है, इससे इसके जगत्कर्ता होने का अनुमान हो सकता है और जब तक कार्य रहता है, कारण भी उसमें रहता है, उससे स्थिति का कारण भी अनुमित हो जाता है और प्रलय (फना) होकर कार्य अपने उपादान कारण में सम्मिलित हाक जाता है। इस प्रकार के अनुमान से प्रकृति को श्रुति के अनुसार जगत्कर्ता सिद्ध करते हैं उसके उत्तर में व्यासजी का कथन है कि कठोपनिषद् के लेख से प्रकृति के जगत्कर्ता होने को अनुमान नहीं हो सकता; क्योंकि वहाँ शरीर का अलंकार बनाकर दिखलाया है कि यह शरीर गाड़ी है, इन्द्रियाँ घोड़ा हैं, मन प्रग्रह (लगाम) है, बुद्धि सारथी और आत्मा उसमें विराजमान है। इस स्थान पर शरीर प्रकृति को स्वीकार किया जा सकता है। आत्मा पुरूष है, जिससे स्पष्ट प्रकट है कि शरीर बिना आत्मा के कुछ नही कर सकता। इस प्रकार स्वतंत्र होकर प्रकृति जगत् को नहीं रच सकती, जैसे मृतक शरीर कोई कार्य नहीं कर सकता; ऐसे ही गति रहित प्रकृति (गैरमुतहरिंक माद्दे) में जगत् उत्पन्न करने की शक्ति नहीं हो सकती। निश्चय प्रकृति जगत् का उपादान कारण हो सकती है; परन्तु निमित्त कारण अर्थात् कर्ता नहीं हो सकती। वेदान्त दर्शन जिस कर्ता का निरूपण करता है, वह केवल निमित्त कारण (इल्लते फायली) है; इस कारण निमित्त कारण का लक्षण उपादान प्रकरण में नहीं हो सकता; क्योंकि उपादान कारण (गैरमुदरिे) ज्ञान-शून्ष् होने से किसी नियमपूर्वक पदार्थ की उत्पत्ति का कारण नहीं हो सकता। प्रकृति को गातिवाली (मुतर्रिक अर्थात् साकित) मानकर भी उससे जगत् की उत्पत्ति असम्भव है; क्योंकि दो परमाणुओं में यदि चलने की शक्ति समान हो, तो किसी ओर चलें; संयोग असम्भव है जितनी दूरी चाल से प्रथम होगी, वह सदैव बनी रहेगी। यदि गतिशून्य (मुतर्रिक) मानें, तो संयोग नहीं हो सकता। दूसरा उत्पत्ति और नाश दो गूण आपस में विरूद्ध हैं, किसी एक पदार्थ के गुण नहीं हो सकते; इस कारण बुद्धिमान मनुष्य की दृष्टि में कोई आवयश्यकता इस प्रकार की प्रस्तुत हा सकती कि जिससे स्वभाव (नेचर) वा आकर्षण का अथवा कोई हेतु प्रकृति को जगतकर्ता सिद्ध कर सके।
प्रश्न- क्या प्रकृति से जगत् की उत्पत्ति नहीं होती? उसको तो दुनियाँ की उत्पत्ति का कारण बड़े-बड़े विद्वान् स्वीकार करते हैं।
उत्तर- स्वभाव (नेचर) के माननेवालों से यह प्रश्न किया जावे कि यह प्रकृति द्रव्य (मौसूफ) है वा गुण (सिफत) है; चेतन (मुदरिक) है अथवा जड़ (गैर मुदरिक); सक्रिय (मुतहर्रिक) है वा अक्रिय (गैरमुतहर्रिक); उसकी क्रिया स्वाभाविक है वा ज्ञानपूर्वक; तो उनकी पोल पाँच मिनट में खुल जाती है। निश्चय मूर्खों और स्कूलों के बालकों की दृष्टि में वह विद्वान हो सकते हैं; परन्तु बुद्धिमानों की दृष्टि में वह स्वयं असम्भव-दोष के गढ़े में गिरे हुए हैं औ दूसरों को गिराते हैं।
प्रश्न- प्रकृति में आकर्षण शक्ति है, जिससे वह मिल जाती है और सृष्टि उत्पन्न हो जाती है।
उत्तर- क्योंकि प्रकृति में परिमाणु आपस में एकसे हैं; इस कारण वह आकर्षण शक्ति से आपसमें मिल नहीं सकती। आकर्षण शक्ति से बड़ी वस्तु छोटी को अपनी ओर खींच सकती है; परन्तु समान वस्तुयें नहीं मिल सकतीं। निदान जो मनुष्य आकर्षण से प्रकृति में संयोग मानते हैं, वह विद्वान् नहीं कहला सकते।
प्रश्न- कठोपनिषद् में जो शरीर का रूपक दिखलाया है, वह जीव आत्मा से संबंध रखता है; क्योंकि इन्द्रियों को घोड़ा बतलाया है; परमात्मा की इन्द्रियाँ विद्यमान नहीं।
उत्तर- आत्मा शब्द से दोनों लिये जाते हैं। शरीर में व्यापक होने से जीवात्मा कहलाता है और संसार में व्यापक होने से परमात्मा कहलाता है; अतः प्रकृति को परमात्मा का शरीर मानकर आत्मा से रहित शरीर कभी कर्ता नहीं होता। ऐसे ही प्रकृति स्वतंत्रता से जगत् को नहीं रच सकती। जगत्कर्ता परमात्मा ही सिद्ध होते हैं।
प्रश्न- इस स्थान पर इन्द्रियों के घोड़े जो लिखे हैं, वह परमात्मा में किस प्रकार हो सकते है?
उत्तर- घोड़ों की आवश्यकता ठिकाने पर जाने के जिये होती है; परन्तु परमात्मा के लिये कोई स्थान नहीं; इस कारण उसे इन्द्रियों की कोई आवशयकता नहीं। केवल शरीर की भाँति प्रकृति में व्यापक होने से यह अलंकार उसमें भी आ सकता है।
प्रश्न- कठोपनिषद् में वर्णित है कि-इन्द्रियों से परे अर्थ अर्थात् रूप, रस, गन्ध आदि, अर्थों से परे मन, मन से परे बुद्धि, बुद्धि से परे जीवात्मा, उससे परे महत् अर्थात् मन, उससे परे अव्यक्त और अव्यक्त से परे पुरूष अर्थात् परमात्मा है, जिससे परे कोई नहीं1 इसमें बुद्धि दो बार आई है?
उत्तर- क्योंकि जीव के मन में दो प्रकार के हैं- एक मल-विक्षेप-आवरणयुक्त की है-एक वद्ध जीव की बुद्धि, दूसरी मुक्त जीव की बुद्धि। इस कारण मल-विक्षेप आवरण दोष से रहित मन महान् परमात्मा को जानने से मान कहाता है।
प्रश्न- सांख्य दर्शन में महत् को प्रकृति से उत्पन्न होनेवाला प्रथम कार्य बतलाया है। उसको मन के नाम से प्रसिद्ध किया है।
उत्तर- क्योंकि प्रकृति से जबमन उत्पन्न होता है, तब उसके भीतर यह दोष उपस्थित नहीं होते; इसलिये उसकी महत् संज्ञा होती है।
प्रश्न- बहुत से आचार्य कहते हैं कि महत् नाम ब्रह्मा की बुद्धि का है।
उत्तर क्योंकि बहुधा स्थानों पर बुद्धि मन स्थान पर प्रयुक्त होती है, जैसे कि न्याय दर्शन में प्रकृति का लक्षण करते हुए दिखलाया है; ऐसे ही और स्थान पर भी हो सकता है। इस प्रकार विचार करने से विश्वास होता है। कि अनुमान से भी जड़ (गैर मुदरिक) प्रकृति को जगत्कर्ता नहीं कह सकते; जैसे हमारा शरीर कर्ता नहीं कह सकता। कर्ता का शब्द केवल आत्मा के लिये प्रयुक्त हो सकता है।
प्रश्न- प्रकृति को शरीर नहीं कह सकते; क्योंकि वहस्थूल होता है।