सूत्र :पत्यादिशब्देभ्यः 1/3/43
सूत्र संख्या :43
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पदार्थ- (पति) स्वामी (आदि) वगैरा (शब्दभ्यः) शब्दों से स्पष्टतया जीव और ब्रह्मा का भेद प्रकट होता है।
व्याख्या :
भावार्थ- क्योंकि परमात्मा को जीव, प्रकृति को अधिपति अर्थात् स्थिति रखनेवाला और स्वामी बतलाया गया है, जिससे स्पष्ट है कि यह शब्द एक के लिये हो ही नहीं सकता; क्योंकि स्वंय अपना स्वामी आप में व्यापक स्वयं अपने को देखनेवाला हो नहीं सकता; क्योंकि उसमें आत्माश्रम दोष है; परन्तु यह शब्द श्रुतियों में परमात्मा के लिये बहुधा आते हैं कि परमात्मा सब भूतों का आत्मा है, जो सम्पूर्ण भूतों को आत्मा के अन्दर देखता है और सब भूतों के अन्दर परमात्मा को देखता है। इस प्रकार के भेद प्रकट करनेवाले शब्दों की उपस्थिति में बिला युक्ति जीव को ब्रह्मा बतलाना उचित नहीं। इन तीन पादों में तो कोई सू़ नहीं जो जीव और ब्रह्मा को एक बतलाता हो वा उपधिकृत भेद कहता हो। विरूद्ध भेद कहनेवाले सूत्र औ श्रुतियाँ और युक्तियाँ प्रस्तुत हो चुकी हैं। यदि मनुष्य वेदान्त से पृथक् न्याय और वैशेषिक आदि शास्त्रों को पढ़ लेते तो मायावाद को जो वेद-विरूद्ध है, वेदान्त के नाम से जो कि वेदानुकूल है, व्याख्या न करते। यदि मनुष्य वेदान्द की सत्यता से अभिज्ञ (माहिर) हो जावे, तो उनकी आत्मा में इतना बल आ सकता है कि भूमण्डल के गुरू बन सकते हैं और प्रत्येक मस्तिष्क पर उसका प्रभाव पड़ सकता है। यदि भारत के वैदिक धर्मी वेदान्त को खूब विचारों, तो उनकी और ही अवस्था हो जावे; मृत्यु का भय जाता रहे; आत्मा के भीतर शांति और आनन्द ज्ञात होने लगे; सर्व दुःख नष्ट हो जावें।