सूत्र :दृष्टं च दृष्टवत् 2/2/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : संशय दो प्रकार का होता है एक बाह्य पदार्थों में दूसरा आभ्यन्तर पदार्थों में। वाह्य पदार्थों में जो संशय होता है वह भी दो प्रकार का है। एक वह जिसके धर्म को देख सके; एक वह जिसके धर्म को न देख सके। जैसे ऊंचे ठूठ को देखकर यह विचार करते हैं कि यह ठूठ है या आदमी? दूसरे जंगल में झाड़ियों में गाय व नील गाय के सींग देखने से, यह सन्देह उत्पन्न होता है कि यह गाय है या नील गाय वास्तव में वहां भी सींग ही में सन्देह होता है, कि यह गाय के सींग है या नील गाय के? अभिप्रायः यह है कि एक स्थल में तो सम्पूर्ण धर्म का न होने से सन्देह होता है और दूसरे समय केवल एक-एक के प्रत्यक्ष होने से सम्पूर्ण न देखने से सन्देह होता है, क्योंकि सामान्य धर्म बहुतों में पाया जाता है।