सूत्र :सामान्यप्रत्यक्षाद्विशेषाप्रत्यक्षाद्विशेषस्मृतेश्च संशयः 2/2/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : किसी विषय की परीक्षा करने में जब तक सशंय का होना न पाया जावे तब तक परीक्षा नहीं हो सकती, इसलिए ऋषियों ने सिद्धान्त कर दिया है कि न तो, जिसका निस्सन्देह ज्ञान हो जावे, उसकी परीक्षा की जाती है। और नहीं उसकी की जाती है। और नहीं उसकी परीक्षा होती है, जिसका कुछ भी ज्ञान न हो किन्तु जिसका संदिग्ध ज्ञान हो उसकी परीक्षा हुआ करती है, इसलिए परीक्षा से पूर्व सबसे बड़े भाग संशय का जाना आवश्यकीय है। इसलिए शब्द की परीक्षा से पहले ही उसमें उत्पन्न होने वाले संशय का लक्षण करते हैं क्योंकि शब्द के विषय में सर्वसम्मति के न होने से संशय उत्पन्न होता है। राधा स्वामी मत वाले शब्द से जगत् की उत्पवत्ति मानने के लिए शब्द को द्रव्य ही मानते है। इसी प्रकार पहले भी मनुष्यों का विचार था कि कि शब्द द्रव्य हैं। कतिपय आचार्य इसको गुण ही मानते हैं और नित्य भी मानते हैं। बहुत से अनित्य जानते हैं इसलिये शब्द के नित्य वा अनित्य होने में भी संशय है।
व्याख्या :
प्रश्न- संशय किसको कहते हैं?
उत्तर- सामान्य गुण के प्रत्यक्ष होने और विशेष गुण के प्रत्यक्ष न होने पर विशेष गुण के स्मरण होने पर, संशय उत्पन्न होता है।
प्रश्न- विशेष किसको कहते है?
उत्तर- जो एक को दूसरे से पृथक् कर दे, जैसे दूर से ठूठ को देखने से लम्बाई आदि गुण, जो मनुष्य के साथ मिलने से सामान्य है, और सिर, पैर और मुख आदि गुण के प्रत्यक्ष होने से, यह संशय उत्पन्न होता है कि वह मनुष्य है या स्थाणु (ठूठ) क्योंकि मनुष्य को अपने गुण सिर पैर वाला होने की याद आती है, किन्तु सिर पैर का प्रत्यक्ष नहीं होता और ठूठ के सामान्य गुणों का ज्ञान होता है परन्तु सिर का होना भी प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए दोनों के विशेष गुणके बाद आने से और प्रत्यक्ष न होने से, संशय उत्पन्न होता है। आशंय यह है कि जहां दोनो ओर की प्रत्यज्ञायें एक सी प्रतीत हों, वहां संशय उत्पन्न होगा।
प्रश्न- देखी हुई वस्तुओं में तो संशय हो सकता है, परन्तु आत्मा आदि अदृष्ट पदार्थों में क्यों संशय उत्पन्न होता है?