सूत्र :दृष्टानां दृष्ट-प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय 10/2/4
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जो कर्म प्रमाण से मालूम हुवे हैं, यज्ञ, दान स्नान, संस्कार आदि जो शास्त्र ने प्रयोजन दिखलाया है। उसकों मालूम करके जैसे कहा, कि जिसको स्वर्ग की इच्छा हो वह दैव यज्ञ करे। अथवा सुख की इच्छा वाला अग्निहोत्र करे इस प्रकार की शिक्षा में बुद्धि के अनुसार फलता हो और किसी स्थान पर अर्थवाद होता है तो है, जिसका इच्छा, स्तुति निदा, प्रकृति और पुराकल्प रूप से अच्छे कर्मो का संचार करना होता है जिसकी की जाती है उसका फल सदैव लाभाकारी होता है। यदि संचार में लाभाकारी न हो ताक समझ लेना चाहिए, कि यह मोक्ष का साधन है इसी प्रकार जिसकी निदा की जाती है वह हानिकारक होता है। यदि यहां उसकी हानि मालूम न हो तो मोक्ष में अनुरोधक होगा। जैसे वेद में कहा है, कि निष्काम दूसरों का भला करो अब इससे संसार में कोई फल नहीं मिलता, तो यह कर्म निष्फल न होगा, किन्तु अन्तःकरण का शुद्ध करके मोक्ष की तरफ ले जायगा, और मोक्ष के कारण बिना ईश्वर उपसना और ज्ञान के योग्य बनानेगा वेदों ने बतलाया, कि जीव की हिंसा मत करो माँस मत खावो, सुरापान मत करो यदि इन बातों से संसार में कोई हानि दृष्टिगत न होवे तो भी मन को खराब करके ईश्वरोपासना और ज्ञान के योग्य नहीं रहने देता। जिससे लाभ के स्थान में जीव हानिकारक परमाणुओं को प्राप्त कर दुःख पाता है। तात्पर्य यह है कि वेद का बतलाया हुआ कर्म निष्फल कभी नहीं जाता। इसलिए वेदोक्त कर्म करने चाहिये।
वैशेषिक दर्शन का भाषानुवाद का दसवां अध्याय समाप्त।
परमहंस परिव्राजकाचार्य श्री 108 स्वामी अनुभवानंद सरस्वती जी के शिष्य श्री स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती का किया हुआ वैशेषिक दर्शन का भाषानुवाद समाप्त हुआ।