सूत्र :वायुसंनिकर्षे प्रत्यक्षाभावाद्दृष्टं लिङ्गं न विद्यते 2/1/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वायु के सम्बन्ध का ज्ञान प्रत्यक्ष में नहीं जाना जाता अर्थात् दो वायुओं का मिलना आंख आदि न्द्रियों से नहीं अनुभव किया जाता, इसलिए उसका लिंग स्पर्श अदृष्ट ही कहा जायेगा।
व्याख्या :
प्रश्न- यदि अदष्ट शब्द का यह अर्थ किया जावे कि जो किसी प्रमाण से न जाना जावे तो लिंग हो ही नहीं सकता। क्योंकि प्रत्येक भाव पदार्थ की सिद्धि प्रमाण से ही होती। जब निशाना के लिए कोई प्रमाण ही नहीं तो उसकी सत्ता ही सिद्ध नहीं। और अभाव किसी पदार्थ का लिंग हो नहीं सकता।
उत्तर- यहां अदृष्ट शब्द का अर्थ केवल बाह्य इन्द्रियों से न जानने योग्य होता है।
प्रश्न- यह कहना भी ठीक नहीं। क्योंकि वायु का त्वचा द्वारा ज्ञान होता है, और त्वचा इन्द्रिय है, इसलिए वायु का वाह्य इन्द्रियों से ज्ञान होना पाया जाता है?
उत्तर- त्वचा से उष्ण शीत या कोमल कठोर का ज्ञान होता है, जो वायु का लिंग नहीं है किन्तु अग्नि का गुण है। उष्ण शीत से भिन्न केवल स्पर्श का ज्ञान त्वचा से नहीं होता। इसलिए वायु का लिंग अदृष्ट अनुभव इन्द्रियों से हनीं कर सकते किन्तु उसका अनुमान और शब्द से सिद्ध होता है।
प्रश्न- अनुमान तीन प्रकार का होता है एक पूर्ववत् दूसरा शेषवत् और तीसरा सामान्यतोदृष्ट, उनमें से वायु में कौन सा लिंग है।