सूत्र :तेजो रूपस्पर्शवत् 2/1/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : तेज अर्थात् का गुण रूप और स्पर्श है। जब कि पृथ्वी और जल दोनों अग्नि से स्थूल हैं, इसलिए उनके गुण गन्ध और रस अग्नि में नहीं होते। आशय यह है कि जिसमें चमकदार रूप और गर्म = उष्ण स्पर्श होता है वह तेज है।
व्याख्या :
प्रश्न- यदि स्पर्श उष्ण होता है यही अग्नि का लक्षण है तो चनद्रमा हीरा, मणि, सोना और चांदी में तेज होता है, परन्तु उनमें स्पर्श नहीं होता।
उत्तर- यद्यपि चन्द्रमा आदि सबों में स्पर्श उष्ण होता है, परन्तु जल का गुण जो शीत है उसके अधिक होने से उष्णता प्रतीत नहीं होती , क्योंकि जो बलवान् होता है वह दूसरे को शक्ति को तिरोभूत कर देता=दवा देता है। इसी प्रकार कहीं जल की अधिकता से जैसे चन्द्रमा में कही मिट्टी की अधिकता से जैसे मिट्टी आदि उष्ण प्रतीत नहीं होती।
तेज वार प्रकार का है’’’ एक वह जिस में रूप और स्प्र्श दोनों प्रत्यक्ष होते हैं, जैसे रूप और अग्नि दूसरा जिसमें रूप का प्रत्यक्ष है स्पर्श का नहीं, जैसे चन्द्रमा इसमें उष्णता का प्रत्यक्ष नहीं होता।
तीसरे जिसमें उष्णता का प्रत्यक्ष होता है, रूप का नहींहोता जैसे गरम गड़ा या गर्म हवा। चौथे वह जिसमें रूप और उष्ण दोनों का प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे आंख। ये चार प्रकार ही श्री स्वामी शंकराचार्य ने लिखे हैं। प्रशात्तपाद ऋषि ने अपने भाष्य में इस प्रकार विभाग किए है, पहली भौम जो लकड़ी आदि पार्थिव पदार्थों के जलने से प्रतीत होती है। दूसरी दिव्य जो सूर्य और बिजली आदि से प्रत्यक्ष होती है तीसरी सौन्दर्य अर्थात् वह अग्नि जो खाए हुए को पेट में पचाती है। चौथी आकरज अर्थात् वह अग्नि जो सुवर्ण आदि चमकीले पदार्थों में होती है। अग्नि के गुण उपरान्त अब वायु का गुण वर्णन करते हैं ।