सूत्र :रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी 2/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : पृथ्वी में रूप, रस, गन्ध और स्पर्श, ये गुण रहते हैं। जैसे नीला, पीला, काला और लाल आदि जो रगड. हैं, रूप कहाते हैं खट्टा, कड़वा, कसैला, नेमकीन, फीका और चरपरा आदि रस है। सुगन्ध और दुर्गन्ध कहाते हैं, वह पृथ्वी में ही रहते हैं स्पर्श जैसे ठण्डा, गर्म, कठोर कोमल और न गर्म न सर्द आदि पृथ्वी में पाये जाते हैं।
व्याख्या :
प्रश्न- पत्थर में गन्ध और रस नहीं पाया जाता है और पत्थर को पार्थिव माना जात है ।
उत्तर- पत्थर में गन्ध और रस दोनों विद्यमान है। पत्थर की यदि भस्म कर दी जावे तो दोनों का प्रत्यक्ष हो सकता है, क्योंकि यदि पत्थर में रस न होता तो जलाने से उसकी भस्म न होती। जो परमाणु पत्थर में थे उसके भस्म में हैं। जब भस्म में गन्ध का प्रत्यक्ष होता है तो पत्थर में यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि ये गुण जो पृथ्वी के बतलाए गए हैं ये संयुक्त के गुण हैं, उनमें से जो रूपगुण है वह अग्नि का है, रस जल के संयोग से है, गन्ध पृथ्वी संयुक्ता का स्वाभाविक गुण है और स्पर्श वायु के संयोग से है। जो पंच भूत हमें दृष्टिगत होते हैं वे सक संयुक्त हैं, उनमें तो स्थूल है उनमें सूक्ष्म के गुण रहते हैं। पृथ्वी सबसे स्थूल है इसलिए उसमें सब भूतों के रहने से उन सबके गुणों का प्रत्यक्ष पृथ्वी में होता है। जो जिसमें सूक्ष्म है उसमें अपने से स्थूल के गुणों की प्रतीति नहीं होती, जो अगले सूत्रों में सिद्ध किया जावेगा। जिन मनुष्यों ने संयुक्त भूतों को देखकर आर्य पदार्थ विद्या पर कटाक्ष हैं कि आर्य लोग जिन भूतों को तत्व मानते हैं वे मुरक्कव (संयुक्त) है, यह उनकी अज्ञानता का कारण है। आर्य लोग इन स्थूल भूतों को तत्व नहीं मानते किन्तु इनको संयुक्त ही मानते हैं। अब यह स्थल पृथ्वी के स्वाभाविक और नैमित्तिक गुण बतला दिए आगे उसकी विशेष व्याख्या करते हैं।