सूत्र :रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः 2/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इनमें से रूप, रस और स्पर्श, ये तीन गुण पानी में रहते हैं, और वह बहने वाला चिकना होता है। जल, जबकि पृथ्वी से सूक्ष्म है इसलिए गन्ध जो पृथ्वी का गुण है वह उसमें नहीं रहता किन्तु वायु का स्पर्श और अग्नि का गुण रूप उसमें रहते है इसलिए कि वायु और अग्नि जल से सूक्ष्म हैं। जिन लोगों ने पानी को तत्त्व नहीं माना, और यह बतला दिया कि जल दो अवयवों से संयुक्त है। एक औक्जिन, और दूसरा हाईड्रोजन अर्थात् उन्होंने इस संयुक्त जल में एक तो ओक्सिजन बतलाया, जिसको प्राणप्रद वायु बतलाया है वास्तव में जोकि अग्नि से मिली हुई एक सूक्ष्म वायु है। यदि इस संयुक्त जल से वायु और अग्नि के भाग पृथक् कर दिए जावें जो परमाणु अवस्था में लाने के अतिरिक्त और किसी प्रकार सम्भव नहीं, तो जो जल बचेगा, वह जल के परमाणु होंगे, चाहे इस समय के साइन्स के जानने वाले, अपने साधनों की न्यूनता से, पाँच से पांचसौ तत्त्वों तक पहुंच जावे, परन्तु अन्त में पुनः पांच ही पर आना पड़ेगा।
व्याख्या :
प्रश्न-जल का रूप कैसा है?
उत्तर- जल का रूप श्वेत हैं जहाँ कहीं कोई नैमित्तिक दोष का संयोग होता है तो उससे और रंग दीखने लगते हैं और रस जल का मीठा है। जहां खारी प्रतीत होता है, वह किसी दोष के कारण से है। स्पर्श जल का शीत होता है। जब जल का उष्ण स्पर्श होता है तब उसमें अग्नि का संयोग होता है। यद्यपि बहना जल का स्वाभाविक गुण है किन्तु किसी कारण से हिम (बर्फ) व ओला बन जाता है, जल में मिलाने का भी गुण है।