सूत्र :सदिति लिङ्गाविशेषा- द्विशेषलिङ्गाभावाच्चैको भावः
इति द्वितीय आह्निकः इति प्रथमोऽध्यायः 1/2/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सत्ता का लक्षण ‘‘है’’ अर्थात यह कहना कि दिव्य है, गुण है, कर्म ऐसा कहने से सत्ता का ज्ञान होता है और ‘‘है’’ कहना सब स्थानों पर समानतया पाया जाता है इसमें ही विशेषता करने वाला कोई भी लक्षण नहीं पाया जाता। जबकि सत्ता, किसी प्रकार से भी सामान्य और विशेष नहीं हो सकती। यथा ‘‘द्रव्य है’’ ऐसा कहने में जैसे ‘‘है’’ कहा जाता है, ऐसे ही ‘‘कर्म है’’ कहने में कहा जाता है। जहां चाहो प्रयोग करो ‘‘है’’ अवश्य ही आवेगा और वह समान होगा। जबकि ‘‘है’’ भेद उत्पन्न करके, विशेषता करने वाली कोई बात ही सिद्ध नहीं होती सत्ता को भिन्न-भिन्न प्रकार का मानना किस प्रकार स्वीकार किया जा सकता है। कहीं पर छोटे बड़े परिमाण ही भेद का कारण होते हें जिनसे विशेषता हो जाती है। जैसे बड़ा दीपक और छोटे दीपक एक ही जाति है, परन्तु छोटाई, बड़ाई के भेद से विशेषता उत्पन्न हो सकती है, किन्तु सत्त में किसी प्रकार तो भेद हो ही नहीं सकता। इसलिए विशेषता उत्पन्न करने वाले किसी लक्षण के न होने से सत्ता एक सीदी माननी चाहिए। यही आशय है।