सूत्र :आर्षं सिद्धदर्शनं च धर्मेभ्यः 9/2/9
सूत्र संख्या :9
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जो गौतम आदि ऋषियों को केवल योग से भूत भविष्य के सम्बन्ध का ज्ञान है। वह आर्षा है अर्थात् ऋषियों का ज्ञान है। और जो सिद्ध लोगों को देरबीन और खुर्दबीनादि से जो बारीक और दूर की वस्तु का ज्ञान है। अर्थात् दूर और छूपी हुई सूक्ष्म वस्तु का जो देखना है। इन दोनों प्रकार के धर्म से यथार्थ ज्ञान प्रमाणित होता है। वह योगी प्रत्यक्ष अन्दर आ जाने से तीसरा प्रमाण नहीं। यह वृत्तिकार कहते हैं। आर्ष ज्ञान चतुर्थ विद्या है वह ऋषियों को लोक में होती है उसी का नाम मानसिक प्रत्यक्ष है। या तो मन के अन्दर जिज्ञासा लिंग उत्पन्न हुआ है प्रथम कृत संस्कार ही इस स्थान पर याप्ति अर्थात् सम्बन्ध का ज्ञान है जिस प्रकार प्रथम संस्कारों से बछड़ा अपनी माता के स्तनों से दूध चूसने लगता है और उसको सिखाने वाला प्रथम संस्कारों के अतिरिक्त कोई नहीं होता प्रशस्त पादार्थचार्य कहते हैं जो ज्ञान खुरदबीन आदि के कारण से सिद्ध लोगों को होता है वह प्रत्यक्ष के अतिरिक्त अन्य प्रकार का ज्ञान नहीं किन्तु प्रत्यक्ष ही है। यदि सूर्य चन्द्रादि की चालों के कारण होने वाला हो तो अनुमान है इस वास्ते और प्रत्यक्ष और अनुमान दो ही प्रमाण हैं।
आर्ष ज्ञान तीसरा प्रमाण नहीं।
वैशेषिक दर्शन भाषानुवाद अध्याय नवमें का
दूसरा आन्हिक समाप्त हुआ।