सूत्र :संशय-निर्णयान्तराभावश्च ज्ञानान्तरत्वे हेतुः 10/1/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सुख-दुःख में पृथक्-पृथक् ज्ञान होने से संदेह और जांच से पृथक्त्व का कारण है। उसका मतलब यह है। सुख-दुःख यह ज्ञान ही वह संदेह रूप होगा या जांच करने योग्य होगा। संदेह रूप नहीं हो सकता क्योंकि उसके वास्ते दो प्रकार का विचार होना आवश्यक है। जैसे वह एक खंभा है या आदिमी और नहीं जांच के योग्य होगा, क्योंकि वह एक ही होता है। इस वास्ते कहा है, कि जब तक विशेषता के रोकने से सामान्य में अनुरोध है। ज्ञान में दो ही प्रकार की विशेषता है। सांदेहिक हो व आनुमानिक। वे दोनों सुख-दुःख में हो नहीं सकते, क्योंकि सांदेहिक और वैश्वासिक ज्ञान सुख-दुःख में नहीं होता। ‘‘च’’ शब्द से अनुभव भी नहीं हो सकता। सुख-दुःख में सुखी हूं। यह मन में अनुभव होता है। ऐसा अनुभव नहीं होता, कि मैं सुख को जानता हूं या संदेह करता हूं या विश्वास करता हूं। इसमें दूसरा भेद करने वाला बतलाते हैं।
प्रश्न- यदि कारण के विभाग पर ज्ञान के अधिकार होने से युख-दुःख का अर्थात् सुख से दुःख का घड़े और खंभे की तरह भेद हैख् तो शरीर और उसके अवयव सिर, पैर, पीठ आदि का आपस में भेद न होना चाहिये क्योंकि उनके कारण परमाणु दोतक आदि अथवा रज-वोर्य और रक्त आदि बराबर ही है।