DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :अस्येदं बुद्ध्यपेक्षितत्वात् 9/2/5
सूत्र संख्या :5

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : उपमान, अर्थपत्ति, अभाव ये सूत्र में शेष है। इस व्यापक का यह व्यय है, इस प्रकार की जो बुद्धि है, वह उत्पन्न करने वाले की आवश्यकता रखती है। जिसकी उसको आवश्यकता होती है उसकी सत्ता को उसके लिउ आवश्यक कहते हैं। उसका यह कारण है अथवा कार्य है इस ज्ञान वा सम्बन्ध की आवश्यकता वाले होने यसे यह चारों प्रमाण अनुमान के अन्दर आ जाते हैं। इनमें से उपमान तो शब्द के द्वारा अनुमान ही है। जैसे गौ के सदृश नीलगाय होती है, यह किसी वनवासी ने जनपद से कहा, कि गौ की सदृश नीलगाय होती है इस साधिकरण होने के कारण से इस शब्द को सुनने के बाद वह जंगल में गया और उस प्रकार के शरीर को देखकर यह विचार हुआ कि वही नीलगाय शब्द का अर्थ है अर्थात् नीलगाय है, विश्वास करता है। उस शब्द के सुनने के समय नीलगाय प्रवृत्ति का कारण न जाना, इससें किस प्रकार नाम का विभाग हो? उत्तर यह है, कि लक्षण से उसकी प्रतीति होना सम्भव होने से ज्ञानासुसार नीलगाय है।

व्याख्या :
प्रश्न- जब वाक्य में अन्वय से अर्थ न निकलता हो तब लक्षण हो सकती है। जहां अर्थ निकलता है वहां किस प्रकार लक्षण होगी? उत्तर- यथार्थतया मतलब न समझने से गौ के अनुसार गुणों का बिना दर्शन के समझना लक्षण से हो सकता है। अथवा यह समझो, कि नीलगाय शब्द नीलगाय को बतलाने वाला है, किसी दूसरे के वास्ते व्यवहार न होने से विद्वानों ने उसका व्यवहार किया है इससे भी, कि दूसरी जगह व्यवहार न होने से जो शब्द जिस स्थान पर विद्वानों ने व्यवहार यिा है वह उसी का वाचक है अर्थात् उस शब्द के वहीं अर्थ है। जैसे गाय शब्द है। गाय यह शब्द अनुमान से भी नीलगाय से पृथक और कुछ मिलता हुआ मालूम होता है। हेतु यही हैं, कि जो तुमने उपमान की सहायता में कहा है वह अच्छा है। और वह अनुमान प्रमाण के अन्दर भी जाता है। इसकी बाबत विशेष अनुमान भाष्य में देखना चाहिये। प्रश्न- अविद्या की उत्पत्ति का कारण क्या हैं?

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