DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :इष्टानिष्टकारणविशेषाद्विरोधाच्च मिथः सुखदुःखयोरर्थान्तरभावः 10/1/1
सूत्र संख्या :1

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अब आत्मा के गुणों का विचार करना दसवें अध्याय का विषय है और बहुत से लोगों का यह विचार है, कि सुख कोई वस्तु नहीं दुःख के न होने का नाम ही सुख ही है और बहुत से मनुष्य कहते हैं कि दुःख काई वस्तु नहीं। सुख के न होने का नाम दुःख है। इस दुःख की कोई पस्तु नहीं। सुख के न होने का नाम दुःख है। इस प्रकार पृथक्-पृथक् विचारों को दूर करने के वास्ते विचार करते हैं। इष्टानिष्ट कारणविशेषाद्विरोच्चमिथः सुख दुःखयोरर्थान्तर भावः ।।1।। अर्थ- सुख और दुःख दोनों एक दूसरें से पृथक् गुण वाले हैं। क्योंकि सुख तो इष्ट, कारण से उत्पन्न होता है अर्थात्जो इष्ट पदार्थ हैं उनके संग से सुख उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह है कि दोनों कारणों का संग्रह है अथवा पृथक्-पृथक् है और उनमें विरोध है। जहां दुःख होगा वहां सुख नहीं होगा और जिसे सुख होगा उस समय उसे दुःख नहीं। एक समय में दोनों एक स्थान पर नहीं रहते। और शब्द ‘‘च’’से यह तला दिया कि जिस प्रकार उनके कारण पृथक्-पृथक् हैं जैसे सुखी मनुष्य का मुखड़ा प्रफुल्लित और आंखे रोशन और शरीर फूला हुआ मालूम होता है। और दुःखी मनुष्य का मुखड़ा मलीन निर्बल सा प्रतीत होता है। यह प्रशक्त देव आचार्य ने सुख है। वह भाष्य में कहा है। जिससे मुख पर प्रफल्लता मालूम हो वह सुख है। वह चन्दानादि इच्छानुसार विषय प्रापित मेरे लिये इष्ट है। ऐसा जानकर इन्द्रिय और और अर्थ के सम्बन्ध से धर्मादि की आवश्यकता रखता हुआ आत्मा और मन के संयोग से जो मुख पर प्रफल्लता उत्पन्न करने वाला है वह सुख गौतम जी ने अपने न्याय-दर्शन में इस प्रकार के सुख को भी समझना बतलाया है। उसका मतलब केवल वैराग्य उत्पन्न करता है। प्रश्न- इन सुख-दुःख के जो आपस में पृथक्-पृथक् हैं। ज्ञानादि भी, स्मृदि के अनुभव होने से पृथक्-पृथक् होंगे?

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