DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :अस्येदं कार्यकारणसम्बन्धश्चावयवाद्भवति 9/2/2
सूत्र संख्या :2

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : इन धुएं आदि साधनों से अग्नि आदि साष्य का या अग्नि आदि व्यापक वस्तु में जो व्याप्त धूमादि है। ऐसे अवसर पर केवल घिरे हुए की विशेषता ही आवश्यक है कार्य कारण का सम्बन्ध आवश्यक नहीं। इस विचार को दूर करने के वास्ते प्रथम सूत्र में लिखे हुए कारण के सम्बन्ध को भी इस सूत्र में वर्णन किया इस सम्बन्ध को नमूने की तरह उपस्थित करने से अन्य प्रकार के सम्बन्ध भी सम्मिलित हो जाते हैं। सम्बन्ध शब्द से अनुभव करने वाला अथवा पकाने वाला तात्पर्य है और वह सम्बन्ध किससे मालूम करना चाहिए उसके सम्बन्ध में बतलाया कि अवयव से अवयवी के सम्बन्ध को ही मालूम करके अनुमान हो सकता है। और जो सीमा के गुण वाला है। उसका तात्पर्य यह है कि जिसका किसी के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध हो वह ही सीमा के गुण वाला हो सकता है। यह सीमा का गुण दो प्रकार का होता है। एक स्वाभाविक दूसरा नैमित्तिक। वह किसी-किसी प्रत्यक्ष में याध्य में घिरे हुए न होने का गुण विश्वास होने से, किन्तु प्रत्यक्ष के विरूद्ध जो वस्तु इन्द्रिय से अनुभव होने योग्य नहीं और प्रमाण से साबित है, जिनकी सत्ता में प्रतिषेध हो नहीं सकता, उनकी चार अवस्था हैं। कोई कोई साध्य और साधन दोनों में व्यापक हैं और कोई-कोई दोनों में व्यापक नहीं है और कोई केवल साधन कोई साध्य में व्यापक हैं। उनमें से पहला साधन में व्यापक होने से और दूसरा साध्य में उपस्थित न होने से। चौथा साधन में व्यापक न होने से। यह तो नैमित्तिक नहीं, किन्तु स्वाभाविक माननीं चाहिये। तीसरे में भी व्यापक का केवल उसी में व्यापक होना सम्भव न होने से दूसरे का केवल उसमें व्यापक होना किस प्रकार हो सकता। यहाँ इस आक्षेप पर विचार करना चाहिए जिसके स्वाभाविक और नैमित्तिक होने में युक्तियां बराबर हों अथवा हानि लाभ बराबर हो, उसे स्वाभाविक गुण ही ख्याल करना चाहिए। इस में किस प्रकार की उपाधि होगी इस प्रकार की बिना प्रमाण की शंका, जो प्रत्येक अच्छे काम करने और बुरे काम को छोड़ देने में रूकावट डालने वाली है, न हो। इस वास्ते जिस गुण का द्रव्य के पश्चात् आरम्भ हो वह नैमित्तिक। जो गुण और द्रव्य के साथ अनादि हो वह स्वाभाविक है। अब व्याप्ति और नैमित्तिक का वर्णन करे बजलाते हैं कि अनुमान दो प्रकार का है एक स्वार्थ दूसरा परमार्थ।

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