सूत्र :अस्येदं कार्यं कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् 9/2/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : प्रथमान्हिक में एक तो योगियों का मानसिक प्रत्यक्ष, दूसरें लौकिक का इन्द्रियार्थ सम्बन्ध से उत्पन्न होने वाला प्रत्यक्ष, स्वरूप और लक्षण द्वारा बतलाया, और और दो प्रकार के परमाणुओं में से प्रत्यक्ष को तो बतला दिया अब अनुमान को जो लिंग द्वारा होता है, वर्णन करते हैं।
अर्थ- जो लिंग को देखकर ज्ञान उत्पन्न होता है उसे अनुमान कहते हैं, सदैव व्याप्ति से होता है। जब तक किसी वस्तु का किसी दूसरी वस्तु के साथ नियमित संबंध साबित न हो जावे तब तक व्याप्ति नहीं कहला सकती। प्रथम तो व्याप्ति के वास्ते कार्य और कारण का सम्बन्ध है। उसकी आवश्यकता है जिन पदार्थों में कार्य कारण का सम्बन्ध होगा तो उनमें से एक को देखकर दूसरे के होने का अनुमान होना सम्भव है। जैसा पिता पुत्र में कारण कार्य सम्बन्ध है। तो पुत्र को देखकर उसके पिता के होने का अनुमान हो सकता है, क्योंकि बिना पिता के कहीं पुत्र उत्पन्न नहीं हो सकता। दूसरे नदी में बढ़े हुए मैले पानी को देखकर पर्वत पर वर्षा होने का अनुमान हो सकता है इसी प्रकार अन्य अवसरों पर भी विचार कर लेना चाहिये। दूसरा सम्बन्ध संयोग से उत्पन्न होता है। जैसे शरीर और त्वचा का, दूर से ही शरीर को देखकर त्वचा का होना अनुमान से साबित हो सकता है। दूर ही से सर्प को त्रोध में भरकर फुकांये हुए झाड़ी अनुमान होता कि समवाय से अनुमान इस प्रकार होता है कि जल को गर्म देखकर उसमें समवाय सम्बन्ध से रहने वाली का अनुमान होता है। व्यप्ति से जो अनुमान करना बतलाया वह ठीक नहीं। क्योंकि धुएं औरअग्नि को मालूम करके दूर से धूलि का धुआं करके उससे आग के होने का अनुमान होता है जो कि ठीक नहीं।
उत्तर- जब लिंग का ठीक ज्ञान न हो, तो उसके द्वारा जो अनुमान किया जाता हैं। वह अनुमान ही नहीं कहला सकता क्योंकि लिंग के ठीक ज्ञान से व्याप्ति अर्थात् सम्बन्ध द्वारा अनुमान करना बतलाया। यदि लिंग का यथार्थ ज्ञान है नहीं तो वह अनुमान किस प्रकार कहला सकता है अथवा व्याप्ति नहीं हुई तो भी उसको अनुमान नहीं कह सकते। इस वास्ते इस उदाहरण से अनुमान के प्रमाण होने में कोई दोष नहीं आता।
व्याख्या :
प्रश्न- स्वार्थ अनुमान क्या है?
उत्तर- जो आप ही व्याप्ति पक्ष और गुण से जांच करने से अनुमान होता है वह स्वार्थ अनुमान है।
प्रश्न- जो दूसरें से प्रेरणा किये हुए न्याय से उत्पन्न हुए व्याप्ति के ज्ञान से अर्थात् न्याय के बतलाए हुए पांच अवयव अर्थात् अनुमान के अंगों से अनुमान किया जाता है वह परमार्थ अनुमान है।
प्रश्न- न्याय के बतलाये हुए पांच अंग कौन से हैं?
उत्तर- प्रथम प्रतिज्ञा, दूसरे हेतु, तीसरे उदाहरण, चौथे अवयवी जहां हेतु को प्रतिज्ञा में साबित किया जाये, पांचवे निगमन, जिसमें प्रतिज्ञा के हेतु की उपस्थिति को दिखलाकर प्रतिज्ञा के साबित करने का परिणाम निकाल दिया जाता है। जैसे कहा कि शब्द अनित्य है यह प्रतिज्ञा। अब उसका हेतु अपस्थित करता है कि उत्पन्न होने से अनित्य है, क्योंकि संसार में जो-जो वस्तु उत्पन्न हुई हैं सब अनित्य हैं कोई भी उत्पन्न हुई वस्तु नित्य नहीं।