DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Anhwik

Shlok

सूत्र :एतेन विभागो व्याख्यातः 7/2/10
सूत्र संख्या :10

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : संयोग की तरह विभाग से और दोनों प्रकार के कर्म से पैदा होता है अथवा विभाग से और दोनों प्रकार के कर्म का विभाग उत्पन्न होता है। जैसे कि बाज के कर्म से जो बाजू और वृक्ष में विभाग हो गया वह कर्म से हुआ। ऐसे ही दो मल्ल युद्ध छोड़कर पृथक्-पृथक् हो गए उनमें जो विभाग हुआ उन दोनों के कर्म से हुआ। यह विभाग केवल कर्म के पैदा करने वाले क्षण में हुए हैं, क्योंकि इसमें किसी दूसरी वस्तु की आवश्यकता नहीं मालूम हुई। इस वास्ते कहा हैं, कि संयोग और विभाग का कर्म काररण है। विभाग पैदा करने के वास्ते तो अधिकरण का नाश और संयोग उत्पन्न करने के लिए प्रथम संयोग के नाश का विचार करना चाहिए। ऐसा कहना ठीक नहीं, क्योंकि अपनी उत्पत्ति के सम्बन्धी कर्म के अनावश्यक होने से और विभाग से उत्पन्न होने वाला विभाग दो प्रकार का है। एक केवल कारण के विभाग से उत्पन्न होने वाला, दूसरा कारण और अकारण के विभाग से उत्पन्न होने वाला अथवा कारण और अकारण के विभाग से उत्पन्न होने वाला कार्य और अकार्य उनके विभाग से उत्पन्न होते हैं। उनमें केवल कारण के विभाग से, कारण और अकारण के विभाग। जैसे दोनों कपालों के पृथक् होने से कपाल और आकाश में विभाग होता है और कपालों के पृथक् होने से कपाल और आकाश में विभाग होता है और कारण ओर अकारण के विभाग से कार्य और अकार्य के विभाग। जैसे अंगुली के वृक्ष से पृथक् होने से हाथ वृक्ष से पृथक् हो जाता है उससे शरीर और वृक्ष में विभाग हो जाता है।

व्याख्या :
प्रश्न- विभाग के होने में प्रमाण नहीं, केवल संयोग के अभाव में विभागग का शब्द का काम में आने से। उत्तर- यह ठीक नहीं, क्योंकि यदि संयोग कमा अत्यन्ताभाव नहीं होता, द्रव्यों में रहने वला संयोग का अत्यन्ताभाव विभाग होने के ज्ञान का कारण है यह कहना भी ठीक नहीं’ क्योंकि भाग और संपूर्ण में भी ऐसा ही व्यवहार करना पड़ेगा। प्रश्न- जो द्रव्य कार्य नहीं कारण है यदि उनमें विभाग मान लिया जावे तो क्या हानि है? उत्तर- यदि ऐसा माना जावे तो विन्ध्याचल और हिमाचल में भी विभाग मानना पढ़ेगा, जो नहीं है। यदि कोई कहे कि ऐसा होने में क्या हानि है तो विचार करना चाहिए कि नियम विरूद्ध करने में गुण और कर्म में भी विभाग मानना पड़ा क्योंकि व्यवहार का विचार करने से। प्रश्न- यदि संयोग के नाश का नाम विभाग रखा जावे तो क्या हानि है? उत्तर- एक ही संयोग के नाश के संयोग के नाश होने पर विभाग कहना पड़ेगा, किन्तु यह ठीक नहीं क्योंकि दोनों संयोग के उपस्थित होते हुए भी एक संयोग के नाश होने के पश्चात् पुनः मिलने पर सराववे या आंवले में मिली हुई, अवस्था में भी विभाग होने का ज्ञान होने से। प्रश्न- जितना अथवा जिस समय तक संयोग का नाश है वही विभाग है? उत्तर- यह भी ठीक नहीं, क्योंकि एक संयोग के नाश होने में उसका अभाव कहने से, क्योंकि एक संयोग के नाश होने से संयोग का अभाव नहीं होता और कुल अर्थों अर्थात् वस्तुओं के अभाव से। इस वास्ते संयोग के अभाव से पृथक् व विभाग एक गुण है। और दूसरे विपक्षी गुण के नाश होने वाला है, क्योंकि बिना सहाधिकरण विपक्षी गुण से उसका नाश होना सम्भव न होने से क्योंकि आश्रय अपस्थित हो तो विपक्षी के गुण के गुण के बिना नाश नहीं हो सकता। प्रश्न- कर्म भी संयोग से नाश होता है और विभाग को भी संयोग से नाश होने वाला मान लिया जावे तो लक्षण अति व्यास हो गया? उत्तर- गुणों का विपक्षी गुण के आने से नाश हेता है, क्योंकि जिस समय अंगुली, हाथ और शरीर का अपने-अपने कर्म से वृक्ष के साथ मिलाप हुआ। उस अवसर पर केवल अंगुली से उत्पन्न हुए कर्म से, अंगुली और वृक्ष के संयोग का नाश असम्भव होने से हाथ और वृक्ष, भुजा और वृक्ष, शरीर और वृक्ष के संयोग का नाश स्वीकार करना पड़ेगा और हाथ आदि उस स्थान पर कर्म से खाली हैं और अंगुली में जो कर्म है उसका अधिकरण हाथ पृथक् है। दूसरें अधिकरण में होने में वाले कर्म से भी संयोग का नाश होना सम्भव मानना पड़ेगा। प्रश्न- तुम्हारे विचार में उस अवसर पर क्या होगा? उत्तर- अंगुली और वृक्ष के पृथक् होने से हाथ और वृक्ष का विभाग उत्पन्न होकर हाथ और वृक्ष के संयोग का नाश करता है। यह ज्ञान होने से दूसरे अधिकरण अर्थात् अंगुली के कर्म से हाथ के संयोग का नाश हो जावे। इससे अति प्रसंग होना सम्भव नहीं, क्योंकि जो एक दूसरे से मिले हुए है उन्ही में एक वस्तु कके कर्म से दूसरे के संयोग के नाश होने को देखने से यह भी ठीक नहीं, क्योंकि साधिकरण से। दूसरे हठ के अतिरिक्त उसका आश्रय छोड़ना सम्भव नहीं शब्द में जो विभाग है वह विभाग से उत्पन्न होता हैं। इस अवसर पर विभाग के असमवाय कारण होने का विचार करते हैं। किसी एक सेना में कहे हुए शब्दों की दूसरी सेना में जो आवाज होती है। उस स्थान पर सेना और आकाश का समवाय कारण नहीं देखते और आग से जलते हुए बांसों में जो आवाज हो रही है उस स्थान पर भी विभाग के अतिरिक्त कोई दूसरा समवाय कारण दृष्टिगत नहीं होता। इसलिये कारण और अकारण के विभाग से ही कार्य और अकार्य के विभाग का उत्पन्न होना। हम अनुमान करते हैं, यदि ऐसा न हो जो किस प्रकार अपने-अपने कर्म से उत्पन्न हुए अंगुली और वृक्ष का संयोग, भुजा और वृक्ष का संयोग, शरीर और वृक्ष के संयोगों का केवल अंगुली में उत्पन्न हुए कर्म से अंगुली और वृक्ष में विभाग होंने से अंगुली और वृक्ष का संयोग नाश होने पर भी हाथ आदि के संयोग का नाश हो सकता हैं उस स्थान पर विभाग से उत्पन्न हुए विभाग से संयोग का नाश हो जाता है। यह कह चुके हैं दो कारणों के विभाग के द्वाराप कारण और अकारण का विभाग होना साफ प्रतीत होता है। जो बांस के दल अर्थात् गुद्दे में कर्म उत्पन्न हुआ है उसका दल से विभाग ही तरह आकाशादि से भी विभाग होना सम्भव होने से। जब तक बांस का दल अर्थात् गुद्दा हुआ था तब तक उस कर्म से उसका विभाग देखने से प्रकाशित ही है और वही अंगुली में उत्पन्न कर्म से दूसरी अंगुलियों से विभाग की तरह आकाश आदि से विभाग पैदा होता है। द्रव्य में संयोग का विरूद्ध विभाग उत्पन्न रने वाले विभाग कर्म विरूद्ध विभाग के उत्पनन करने वाले संयोग के अनुसार उत्पन्न नहीं है। तात्पर्य यह है, कि कर्म ही से संयोग उत्पन्न होकर द्रव्य बनता है और कर्म ही से विभाग उत्पन्न होकर द्रव्य का नाश होता है। प्रश्न- यह ठीक नहीं, क्योंकि संयोग और विभाग दो भिन्न प्रकार कार्यो के लिए भिन्न प्रकार के कारण चाहियें। एक प्रकार के कारण से भिन्न प्रकार के कार्यें का उत्पन्न होना सम्भव नहीं। अतःएव एक ही कर्म द्रव्य के उत्पन्न करने वाले संयोग का उत्पन्न करें और उसके नाश करने वाले विभाग को भी। जैसे खिला हुआ फूल और उसके बंद करने को भी उत्पन्न कारना सम्भव नहीं? उत्तर- द्रव्य के उत्पन्न करने वाले संयोग के विरूद्ध नहीं, इन दोनों का उत्पन्न करने वाला कर्म है। ऐसा मत कहो, क्योंकि कारण के भिन्न प्रकार के होने के विचार की बुनियाद है न कि विरूद्ध हैं। एक के द्रव्य के उत्पन्न करने वाले संयोग का हठ होने से। इस वास्ते भिन्न प्रकार का विचार करना भी उचित ही है। इस वास्ते यह जो बांस के दल में कर्म उपस्थित है दोनों की तरफ विभाग की तरफ विभागों का उत्पन्न करता है। और वह विभाग आकाशादि स्थानों से विभाग को उत्पन्न करता है। उस बिना दूसरे की सहायता के विभाग उत्पन्न करने वाले को विभाग का कारण होने से कर्म मानना पड़ेगा, क्योंकि वह नाश से पृथक् समय की आवश्यकता रखता है नहीं उस समय भी उसे कर्म ही उत्पन्न करता है। भूतकाल होने से कर्ता का अपनी उत्पत्ति के बिना ही विभाग का उत्पन्न करना सम्भव है। प्रश्न- नहीं इस प्रकार दूसरे विभाग को उत्पन्न करता हुआ कहीं दूसरे देश अर्थात् स्थान में संयोग को भी उत्पन्न न कर दे? उत्तर- नहीं संयोग की उत्पत्ति के संबंध में कर्म अतीत काल में नहीं, यदि इसके विरूद्ध माना जावे तो कर्म का नाश ही न हो। इस प्रकार उसके अगले संयोग से नाश होने वाला होने से। इस वास्ते यह विभाग, आने वाले संयोग से नाश होने वाला तीन क्षण तक रहता है। कहीं तो आश्रय के नाश से नाश होता है जब कि तारों के भागों में उत्पन्न हुए 2 कर्म से आगे चलकर दो भागों का विभाग उत्पन्न होता है और उससे तार में कर्म उत्पन्न करने वाले संयोग का नाश और तार के कर्म से विभाग। उससे वस्तु के उत्पन्न करने वाले संयोग का, उसके नाश से तार का नाश हो जाता है। प्रश्न- इस प्रकार दूसरे तार में उत्पन्न हुए कर्म का नाश नहीं होगा, क्योंकि उसका कोई नाश करने वाला नहीं, क्योंकि आगे होने वाले संयोग ही से उसका नाश होना सम्भव है परन्तु विभाग के नाश होने पर आगे को संयोग ही नहीं होगा? उत्तर- तार में जो कर्म उत्पन्न हुआ है उससे जिस प्रकार उपस्थित तार में विभाग पैदा हुआ है उसी तरह उसका भाग भी विभाग को उत्पन्न करेगा वह भी उत्पन्न करने वाले संयोग का विपक्षी ही होगा। अथवा ऐसा विचारना चाहिए, जिस समय जिस स्थान में तार में कर्म होगा उसी समय उसके भाग में भी होगा और वह कर्म मौजूदा नाश होने वाली तार और उसके भाग के आकाशादि से विभाग को एक साथ उत्पन्न करता है। सम्पूर्ण विभाग के उत्पन्न करने वाले संयोग का विपक्षी होने से। उदाहरणतः भागों और आकाशादि से जो विभाग उत्पन्न हुआ है, उससे पश्चात् उत्पन्न होने वाले संयोग से तार में मिला हुआ जो कर्म है उससे कर्म का नाश होगा। और कहीं पर दो से, जैसे तार और वैरन (जिससे जुलाहा बुनता है) के संयोग होने से तार के स्सिे के परमाणुओं में कर्म होता है और उसी समय वेरन में भी कर्म होता है तार के भाग के कर्म से दूसरे भाग के साथ विभाग उत्पन्न होता है। उससे तार उत्पन्न करने वाले संयोग का भी नाश हो जाता है और वैरन के कर्म से तार और वैरन में विभाग उत्पन्न होता है। और उस तार वैरन में जो संयोग भी नाश हो जाता है। तार और वैरन के संयोग के नाश के पश्चात् वैरन में दो प्रदेश से संयोग उत्पन्न होता है। उस संयोग और आश्रय के नाश से विभाग का भी नाश हो जाता है। प्रश्न- क्या संयोग में संयोग और विभाग में विभाग होता है?

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: fwrite(): write of 34 bytes failed with errno=122 Disk quota exceeded

Filename: drivers/Session_files_driver.php

Line Number: 263

Backtrace:

A PHP Error was encountered

Severity: Warning

Message: session_write_close(): Failed to write session data using user defined save handler. (session.save_path: /home2/aryamantavya/public_html/darshan/system//cache)

Filename: Unknown

Line Number: 0

Backtrace: