सूत्र :भ्रान्तं तत् 7/2/5
सूत्र संख्या :5
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : गुण और कर्म में जो एकत्व का ज्ञान है उनको एक समझा जाता हैं यह ज्ञान भ्रम से है। ठीक नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न- सूत्र में तो ज्ञान का शब्द भी नहीं तुम कहां से कहने लगे, कि ऐसा ज्ञान भ्रम से है।
उत्तर- सूत्रकार के तात्पर्य से जो प्रश्न के उत्तर में कहा है यह साफ प्रतीत है कि वह तत् शब्द से ज्ञान ही का अर्थ लेते हैं, तात्पर्य यह है कि यह कथन भागत है।
प्रश्न- भागत किसे कहते हैं।
उत्तर- जिसे भक्ति हो वह भागत है।
प्रश्न- भक्ति किसे कहते हैं?
उत्तर- जहान स्वरूप से पृथक् न होने वाली भक्ति कहलाती है तात्पर्य यह है कि किसी वस्तु के वस्तुत्व से बाहर हो।
प्रश्न- हम कहते हैं कि द्रव्यों में भी एकत्व नहीं है उनमें भी भ्रम से होता है।