सूत्र :एकत्वाभावाद्भक्तिस्तु न विद्यते 7/2/6
सूत्र संख्या :6
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि द्रव्यों में एकत्व न रहा तो किसी में भी भी न होने से उनकी कुछ सत्ता ही न होगी और जब कुछ सत्ता ही नहीं तो भक्ति से है यह कहना ठीक नही। क्योंकि जब कोई वस्तु होती है तो उसका भ्रम भी दूसरी वस्तु में हो सकता है और जब कोई वस्तु ही नहीं तो उसका भ्रम कैसा? जैसे रस्सी में सांप का भ्रम होता है। वह संसार में असली सांप को कहीं देखने से होता है, किन्तु यदि कहीं देखा नहीं तो रस्सी में साँप् का भ्रम हो ही नहीं सकता अतःएव जब एकत्व द्रव्य में रहता है तब ही गुण कर्म में उसका भ्रम होता यदि द्रव्य में भी भ्रम से कार्य माना जावे जावे तो उसकी सत्ता नष्ट हो जाने से उसका कार्य में परिणत होना असम्भव है। इस वास्ते द्रव्यों में ही एकत्व है और गुण द्रव्यों में रहते हैं। इसलिए कोई आक्षेप ही नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न- कार्य और कारण एक ही है क्योंकि उनमें पृथक्त्व और एकत्व नहीं पाया जाता। कोई वस्तु अपने से आप पृथक् नहीं हो सकती क्योंकि यदि कपड़े की तारों को पृथक्-पृथक् कर दिया जावे तो उससे पृथक् कोई कपड़ा प्रतीत ही नहीं होता किंतु वह तारे ही कपड़ा मालूम होती हैं। यदि तारों से पृथक् कोई कपड़ा होता तो अवश्य दृष्टित होता, ऐसे ही घड़ा जिन दो कपालों से बना है, उनके पृथक्-पृथक् होने से घड़ा भी नजर नहीं आता। इस वास्ते वस्तु के भागों से पृथक् कोई वस्तु नहीं अत-एव कार्य और कारण को एक ही समझना चाहिये।