DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :एतदनित्ययोर्व्याख्यातम् 7/2/8
सूत्र संख्या :8

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : अनित्य गुण अर्थात् संख्या ओर पृथ्क्त्व आदि को कारण के गुण के अनुसार होना जो बतलाया है, और केवल अनित्य गुणों के लिये ही विचार करना नित्य गुणों के वास्ते नहीं तात्पर्य यह है कि कारण के गुणों के अनुसार केवल कार्य में ही पाया जाता है। शेष संख्या और पृथकत्व की अपेक्षा बुद्धि होने से। यथा- अनित्य तेज में जो रूप और स्पर्श हैं वह कारण की विशेषता के अनुसार ही कार्य में प्रकाशित होता है। ऐसी संख्या और पृथक्त्व को विचार लेना चाहिये एक से ज्यादा द्रव्य अर्थात् दो से लेकर संख तक जो संख्या है उसकी उत्पत्ति और नाश का प्रसंग निम्न लिखितानुसार प्रतीत होता है और इसके अतिरिक्त पृथकत्व क भी। सम और असम द्रव्यों में चक्षु का सम्बन्ध होने से उनमें स्थित एकत्व और पृथकत्व जो बराबर है और फर्क बिना किसी फर्ज करने के मालूम होता है उससे विशेषण की विशेषता का ज्ञान होता है। उसी का नाम बुद्धि है। उससे उन द्रव्यों में द्वतभाव उत्पन्न होता है अर्थात् दो होने का गुण प्रकाशित होता है। फिर उस द्वैत भाव से दो का आलोचन अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है। उस प्र्रत्यक्ष ज्ञान से अपेक्षा बुद्धि का नाश हो जाता है और द्वैत की विशेषता से सम्बन्ध रखने वाला एक बार उत्पन्न हो जाता है। उससे अगले क्षण में द्वैत का अपेक्षा बुद्धि के नाश हो जाता है। बौर यह दो वस्तु हैं ऐसा ज्ञान हो जाता है। उससे संस्कार उत्पन्न होता है। यह द्वैत के सहारे स्थित होने वाला इन्द्रियों का सम्बन्ध है। उससे एकत्व गुण का सामान्य ज्ञान होता है और उससे एकत्व में रहने वाली नवोत्पत्ति का सामान्य और विशिष्ट एकत्व और विशेषणों के संग्रह को अनुभव करने वाली अपेक्षा बुद्धि है और उससे क्षैत भाव की उत्पत्ति और उसी में रहने वाले सामान्य का ज्ञज्ञन उससे सामान्य और विशिष्ट द्वैत ज्ञान और द्वैत भाव से द्रव्य का ज्ञान और उससे संस्कार इस प्रकार इन्द्रिय के सम्बन्ध होने से संस्कार तक आढ क्षण होते हैं। और उनके नाश का त्रम यह है। कि वस्तु के सामान्य का अपेक्षा बुद्धि से नाश हो जाता है और द्वैत में रहने वाले द्वैत भाव का समसन्य ज्ञान से नाश हो जता है। और द्वैत भाव के ज्ञान का दव्य ज्ञान से नाश हो जाता है। और द्वैत भाव से द्रव्य के ज्ञान संस्कार से नाश हो जाता है अथवा किसी दूसरे विषय के ज्ञान से नाश होता है।

व्याख्या :
प्रश्न- गुण के ज्ञान से द्रव्य का ज्ञान क्यों नहीं उत्पन्न होता उसकी एत्पत्ति का सामान होने से? उत्तर- गुण के पश्चात् द्रव्य के ज्ञान में देरी नहीं होती जैसे कहा है। उस अपेक्षा बुद्धि के नाश से उसके नाश के अगले क्षण में द्वैत का नाश हो जाता है वह दो वस्तु हैं इस विशिष्ट ज्ञान से प्रथम क्षण में ही द्वैत का नाश होने से अगर द्वैत से द्रव्य के ज्ञान की उत्पत्ति का समान नियमानुसार अपेक्षा बुद्धि में द्रव्य से ज्ञान की उत्पत्ति करने का ज्ञान होने से। जो कि परिमाण ओर बुद्धि द्वारा विचारने से साफ प्रतीत हो जाता है। प्रश्न- अपने उत्पन्न हुए संस्कार से अपेक्षा बुद्धि नाश होने से फिर वही दोष वैसा ही बना है अर्थात् द्वैत से ज्ञान के प्रथम क्षण में द्वैत का नाश सम्भव होने से? उत्तर- यह ठीक नहीं। क्योंकि केवल गुणों का ज्ञान ही संस्कार की उत्पत्ति का बिना किसी द्रव्य के स्मृति होती है। सर्वदा द्रव्य के साथ मिला गुण स्मरण होता हकन्तु द्रव्य और गुण से। प्रश्न- यदि ऐसा भी मान लिया जावे कि गुणों के ज्ञान से संस्कार नहीं उत्पन्न होता तो भी विशिष्ट ज्ञान के समय द्वैत के नाश से और विशेष प्रकार की अवस्था के उत्पन्न न होने से वही अवस्था है क्योंकि वर्तमान दशा में प्रकाशित होने वाली विशेष वत्ति विशेष कर कर्ता के नाश अवस्था में सम्भव ही नहीं? प्रश्न- यदि हम ऐसा ही न मालूम होने के कारण से ही स्वीकार करें तो क्या हानि है? उत्तर- विशेष्य ज्ञान विशिष्ठ से, इन्द्रिय के संबंध से उन दोनों का ग्रहण न होने से खास ज्ञान के कारण का वर्तमान अवस्था भी सम्भव होने से यदि विशेंषता से इन्द्रिय सम्बन्ध का ही विचार किया जावे तो भी प्रथम क्षण में उसके भी होने से। प्रथम क्षण में काम करने वाली इन्द्रिय के सम्बन्धी कारण को मालम करने से विशेष्य ज्ञान से प्रतीत होने वाला भी सम्भव होता है, क्योंकि विशिष्य और ज्ञान का उत्पन्न करने वाला केवल विषय ही गणना में आता है, किन्तु विशिष्ट ज्ञान की सत्ता विषय है वह गणना में नहीं आता। प्रश्न- क्या अब तटस्थ लक्षण को भी विशेष्य कह सकते हैं? उत्तर- नहीं, क्योंकि विशष्य उसको विशेषण द्वारा सामान्य से पृथक् कर देता है और विशेष्य और विशिष्ट दोनों एक स्थान पर रहते है किन्तु तटस्थ लखण उस स्थान से पृथक् स्थान को घेरता है। जब देवदत्त के मकान पर कौवा बैठा ही उस समय वह इस मकान का विशेष्य होगा, और जब उस मकान पर चक्कर लगा रहा हो उस समय वह उपलक्षण व तब्स्थ लक्षण होगा। प्रश्न- इस प्रकार से मानने में रूप वाली वस्तु में रस ही स्पादि में भी विशष्य पैदा होगा। उत्तर- ऐसा नहीं, क्योंकि यह हमारे मतलब का ही प्रमाणित करता है। प्रश्न- तो उसमें भी रस होगा अर्थात् रूप वाले तेज में रस मानना पड़ेगा? उत्तर- यह हानि नहीं क्योंकि विशिष्ट की वृत्ति विशष्य की आवश्यकता न होने से, क्योंकि विशष्य और विशिष्ट एक ही तत्व नहीं है द्वैत नाश के समय में विशिष्य का सम्बन्ध नहीं है, पुनः विशिष्ट ज्ञान किससे होगा? यदि ऐसा मान लिया जावे तो भी ठीक नहीं क्योंकि दूसरों से पृथक् हुई विशिष्ट वस्तु है उसका भाव वहीं उपस्थि है इसमें कुछ भी अशुद्धि नहीं इस प्रकार द्वैत की उत्पत्ति और नाश को प्रमाणित किया। तीन में रहने वाली संख्या का भी विचार कर लेना चाहिये जो अपेक्षा बुद्धि से नाश होता है वह द्वैत ही उत्पत्ति के स्थान के नाश करने वाले दूसरे विपक्षी गुण के न होने से गुण की सत्ता से नाश होना ही सम्भव है। सूक्ष्म ज्ञान का या कार्यज्ञान का नाश करने वाला अप्रत्यक्ष होता है और कभी उत्पत्ति स्थान के नाश से भी नाश हो जाता है। जहां द्वैत का सहारा भागों की हरकत और उस काल एकत्व का सामान्य ज्ञान जब के भागों की हरकत के सामान्य ज्ञान होने में विभाग के साथ सम्बन्रखने वाली बुद्धि अर्थात् मेल को नाश करने वाले गुण की उत्पत्ति और द्रव्य से नाश होने वाले सामान्य क्षैत के ज्ञान में वहां द्रव्य के होने से द्वैत का नाश होगा और सामान्य ज्ञान से केवल अपेक्षा बुद्धि का नाश होगा, क्योंकि अपेक्षा बुद्धि और द्वैत का नाश एक ही समय में होता है। यदि कार्य कारण के एक-सा न होने से जिस समय द्वैत का सहारा हिस्सों की हरकत का सम्बन्धी ज्ञान है यह दोनों एक साथ होते हैं दोनों का नाश आश्रय के नाश से ओर अपेक्षा बुद्धि से द्वैत का नाश हो जाएगा जैसे हिस्सों की हरकत के सम्बन्धी ज्ञान से शेष की उत्पत्ति होती है वही द्वैत की उत्पत्ति है। संयोग और द्वैत के सामान्य ज्ञान में द्रव्य के नाश से अपेक्षा बुद्धि का नाश होता है उनमें द्वैत का नाश मालूम करने की यही रीति है और ज्ञानों में रोकने वाला और नाश करने वाला बहुत्व का नियम प्रामाणिक है अर्थात् जब दूसरा ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रथम ज्ञान को नाश कर देता है और जिस समय एक ज्ञान उत्पन्न होता है उस दूसरे ज्ञान को उत्पन्न नहीं होने देता। प्रश्न- दो और तीन की संख्या में कारण तो एक से हैं, कार्य भिन्न-भिन्न किस प्रकार होते हैं क्योंकि दो अकेली वस्तुओं से दो और तीन से तीन उत्पन्न होते हैं अर्थात् दो और तीन का सामान एकत्व ही है? उत्तर- एकत्व में द्वित्व और बहुत्व नहीं है इस वास्ते दोनों की उत्पत्ति का कारण पृथक् है अर्थात् दो व तीन समवाय कारण अर्थात् मिलाप से द्वित्व औा बहुत्व संयोग में है एकत्व मे नहीं वहां कारण पर ध्यान देने से उससे यह फल निकलता है कि समबन्धी ज्ञान तो एकत्व में रहता है और इस प्रकार के विशिष्ट के न पाये जाने से यदि कहो वह रूका हुआ है उसको फल के कारण अनुमान करते हैं अथवा द्वित्वादि भी वही है तो क्या , एकत्व आदि से वह कोई विशेष छिपा हुआ है तो ऐसा मानने से सम्भव है, कि द्वित्व के उत्पन्न करने वाले कारण तीन व चार पैदा हो जावे और इससे तमाम अनियमता फैल जावे। प्रश्न- विशिष्ट प्राक्भाव से विशेषता उत्पन्न होकर जैसे एक से कारण उत्पत्ति वाले रूप, रस, गन्ध और स्पर्श का पृथक्-पृथक् होना ही सामान्यतया है इसी प्रकार द्वित्व आदि में समझना चाहिये? उत्तर- अपने-अपने कार्य के प्राक्भाव का सम्बन्धी का सम्बन्ध ही कारण के धारण से पता लगता है। चाहे शुद्ध सम्बन्धी ज्ञान से द्वित्व दो के मिलाने से और उसमें एक और मिलाने से तीन होता हैं यह मत कहो, क्योंकि प्रायः कहते हैं कि (मैंने सौ च्यांटी को मार डाला) ऐसे समय पर समवाय कारण के न होने से द्वित्व तब तक पैदा ही नहीं हो सकता, तात्पर्य यह है कि दो एक अर्थात् (1+1) के मिलने से दो और तीन एक (1+1+1) के मिलने से तीन होता है बिना एक (1) के मेल के नहीं अतः एक संख्या को काम लाना गौण है और सेना और जंगल के वृक्षों में नियमित सम्बन्धी ज्ञान के न होने से केवल बहुत में ऐसा होता है, परंतु शत सहस्त्रादि संख्या का वर्णन नहीं होता ऐसा कोई आचार्य मानते हैं, इसी प्रकार लक्ष और कोटि सब मेल से उत्पन्न होंगे और और जहां सम्बन्धी ज्ञान न होगा वहां बहुत, बहुत ज्यादा बहुत ही ज्यादा सेना है ऐसा नहीं यह औदिन्याचार्य कहते हैं इस जगह समझना चाहिये कि तीन से लेकर संख तक संख्या ही बहुत के नाम से कही जाती है। उससे पृथक् कोई दूसरी वस्तु संख्या नहीं है। इसमें से प्रथम आक्षेप अर्थात् जियादती ही संख्या नहीं है ठीक नहीं, क्योंकि फौज के सिपाहियों की सैकड़ों और सहरूत्रों में संख्या मालूम होने से ऐसे ही जंगल के वृक्षों की संख्या से और दूसरा पक्ष, कि केवल संख्या ही होती है बहुत्व नहीं। यह भी ठीक नहीं, क्योंकि तीन आदि कारण से पृथक् बहुत के अनुभव करने पर मालूम न होने से इसलिये नियसमित रीति से एकत्व का ज्ञान न होकर सम्बन्धी ज्ञान वालो जियदती ही सौ आदि की संख्या है उसमें आदि की कोई पृथक् अवस्था नहीं होती। इस प्रकार के पृथक् करने वाले गुण के न होने के हमारा यही तात्पर्य है कि जिस अधिकरण में तीन आदि संख्या रहती हैं उसी में स्थित दूसरी संख्या ही बहुत्व है अथवा तीन आदि के उत्पन्न करने वाले सम्बन्धी ज्ञान से उत्पन्न हुए 2 प्राक्भाव से सत्ता के घटाने से संख्या होती है उसके विरूद्ध नहीं। बहुत्व तब तक होता है जब तक सौ अथवा सहस्त्र है। इस संख्या का हम विशेषतया नहीं जानते जैसे एक वस्तु में स्थूल होना, और सूक्ष्म रह सकता है ऐसे एक अधिकरण में तीन आदि बहुत्व है। प्रश्न- निश्चय यह शत है अथवा सहस्त्र मैं, चार फल ले जाऊं यहां केवल संख्या है बहुत्व नहीं? उत्तर- इसका तात्पर्य यह है कि दो से ज्यादा अर्थात् बहुत ही है और बहुत ही फल लाते हैं उसमें कोई विशेष मालूम करने वाली बात नहीं। इस प्रकार दो के साथ सम्बन्धी ज्ञान मिलने से चार। ऐसे ही आगे ज्यादा में ख्याल करो। बहुत्व के उत्पन्न होने में संख्या और सम्बन्धी ज्ञान के मिलने का नियम नहीं। इस प्रकार सेना और वन के वृक्षों में बहुत्व उत्पन्न होता है कोई दूसरी वस्तु उत्पन्न करने वालों नहीं होती संदेह तो प्रत्येक अवस्थामें हो सकता है, जिस प्रकार एक ही अधिकरण में एकत्व और पृथक्त्व रहते हैं इसी प्रकार एक ही अधिकरण में दो की संयक्ष और द्वित्व रहता है। जैसे द्वित्व है। उसी प्रकार उसकी पृथक्ता है। प्रश्न- दो और तीन आदि एक ही अधिकरण में है। एकत्व और पृथकत्व के व्यवहार का होना सम्भव होने से क्या द्वित्व और पृथक्त्वादि नहीं है? उत्तर- जिस प्रकार घड़ा, ढेला, सरावा पृथक् है इसी प्रकार दो और पृथक्त्व में एक-दूसरें को पृथक् करने वाला स्थान मालूम नहीं होता। प्रत्येक भिन्न-भिन्न वस्तु में पृथक्त्व बराबर नहीं है किन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार की वस्तु का प्रकाशित होता है इस प्रकार नहीं मालूम होते। द्वित्व का सहाधिकरण वाला जो परत्व अर्थात् वरे या परे है उससे उसका ज्ञान हो जाता है जिस प्रकार पृथक्त्व में एक-दूसरे से घिरे होने के कारण फर्क हो जाता है। इस प्रकार फर्क परत्व में नहीं। जिस प्रकार यह दोनों नीले हैं, इस बात को जानने से (नीलेपन) और (दो) में हठ नहीं मालूम होता। दोनो सहाधिकरण है! इसी प्रकार द्वित्व और परात्व भी सहाधिकरण और हठ से मेरा है एक देश में स्थित आपस में मेल और एकता न होने पर भी दिशा और शरीर जैसा जो समवाय कारण में उनके भेद हैं और प्रकार कार्य की उत्पत्ति सम्भव होने से जो एकत्व और द्वित्व मिले और पृथक्त्व का असमवाय कारण भी होना सम्भव है। द्रव्य से पृथक् एक के कार्य के वस्ते अनेक पदार्थों के मेल से कार्यानु सारी समवाय ज्ञान के न होने पर भी उत्पन्न करने के दर्शन न होने से समभव नहीं, कारणों का एक साथ ज्ञान होने से बहुत से तन्तुओं और कार्यानुसारी शस्त्रों का मेल कपड़े और शस्त्र के मेल का उत्पन्न करता है। यह केवल नमूना है। द्वित्वादि के नाश की तरह द्वित्व और पृथक्त्व का नाश भी विचार लेना चाहिये।

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