DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :अन्यतरकर्मज उभयकर्मजः संयोगजश्च संयोगः 7/2/9
सूत्र संख्या :9

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : मिलाप में जो मिले हुवे का मालूम होना है प्रमाणों से नहीं कटता और सब कार्य भागों के संयोग में द्रव्य होते हैं अर्थात् द्रव्यों में अग्नि के मिलने रूपादि पाकज गुण के मालूम होने में विशेषता से (भेरी) आदि वाद्य और आकाश के संयोग से शब्दादि पैदा होते है। यह स्वयं विचार करना चाहिए ऐसे ही और पाकज गुण के सम्बन्ध में सोच लेना चाहिए। संयोग के अर्थ प्रायः ऐसा विचार किये जोत हैं कि (जिसमें बिल्कुल अंतर नहीं) वह संयोग है, किन्तु एक क्षण में नाशवान् वस्तु में यह सम्बभव नहीं। अतः एव जिसके पहले प्राप्त न हो उसका प्राप्त हो जाना संयोग है वह कर्म से उत्पन्न होता हजै जैसे चंचल बाज (एक पक्षी का नाम है) एक स्थायी वृक्ष पर जा बैठता है। अब पहले उस वृक्ष को वह बाज प्राप्त न था अर्थात् उससे पृथक् था अब उस कर्म के कारण जो उस बाज की आत्मा से आरम्भ होकर शरीर में पहुंची। बाज का और वृक्ष संयोग हो गया इसी प्रकार अन्य स्थानों पर हरकत से एक अप्राप्त वस्तु दूसरी वस्तु में मिल जावे। इस मिलने का नाम संयोग है प्रायः परम्परा संयोग जैसे एक वृक्ष के साथ अंगुली लगाने से वृक्ष और हाथ का संयोग कहलाता है। इसी प्रकार तारों के साथ कच मिलने से कपड़े के साथ कच का मेल होता है। कहीं दो के साथ मेल होने से संयोग होता है। जैसे दो तारें आकाश से मिली हुई हैं, और दो तारों का बना हुआ कपड़ा पैदा होना है जैसे बीस तारों के साथ जो आकाश का संयोग उत्पन्न होता है। किन्तु पुनः एक असमवाय कारण संयोग से भी उत्पन्न हो जाते हैं जैसे मिट्टी और जल के परमाणुओं में न पैदा करने वाला संयोग उत्पन्न हो उस एक ही मिट्टी के परमाणुओं से जल की दो तक से भी दूसरा संयोग इस प्रकार और दोनों के संयोग की उत्पत्ति एक ही समय में होती है। कारण और अकारण उनके संयोग द्वारा कार्य और अकार्य के संयोगों को आवश्यकीय तौर पर उत्पन्न करने से मूर्तिमान वस्तु और विभु से सम्बन्ध रखने वाली वस्तु से संयोग कर्म से होना आसवश्यकीय नहीं, क्योंकि कारण के न होने से वहीं हरकत ही नहीं और न कारण ही है अतः एक कारण और अकारण के संयोग से कार्य का संयोग भी नहीं है। विभु और मूर्तिमान द्रव्य का संयोग नित्य ही है। प्रथम न मिले हुए का मिलना जो संयोग का लक्षण किया था उससे संयोग उत्पन्न होता प्रमाणित हेता है और विभु का संयोग नित्य कहते है। यह उसका विपक्षी है। दूसरा विभाग भी नित्य हो जावेगा और यदि कहो विभाग का नित्य होना भी लाभदायक ही है, किन्तु यह ठीक नहीं, क्योंकि संयोग व विभाग तो एक दूसरे के विपक्षी हैं यदि दोनों अविनाशी हों तो एक ही स्थान में उनका पाया जाना असम्भव है इस वास्ते दोनों अनित्य हैं। इस वास्ते आवश्यक दो वस्तुओं का होना है, किन्तु नो विभु वस्तु नहीं हो सकती। जो मूर्तिमान भी हो, जिनमें संयोग सम्भव हो। विभु वस्तु तो दोनों मिलने से और दोनों पृथक् और उनसे बिलकूल पृथक् रहने वाला संयोग का आश्रय है। और संयोग का नाश प्रथम तो साधिकरण विभाग से होता है अथवा आश्रय अर्थात् आधिकरण विभाग से होता है अथवा आश्रय अर्थात् अधिकरण के नाश से हो सकता है। जैसे किसी स्थान पर दो तारों के मिलने के बाद एक तार के किसी भाग में कर्म उत्पन्न हो और उस कर्म से दूसरे काम से वह वस्तु पृथक् हो जावे और विभाग से उत्पन्न करने वाले संयोग का नाश और उससे तार का नाश और तार के नाश से संयोग का नाश। जहाँ दो तारें बहुत समय से मिली हों और एसमें कर्म उत्पन्न होने नाश हो जाता है। कुछ ऐसा कहते हैं तार के भाग के कर्म से तार के उत्पन्न करने वाले संयोग का नाश हो जाता है तब दूसरे में कर्म विचार करने से अधिकरण का नाश और विभाग से जो दोनों एक साथ उत्पन्न होते है संयोग का नाश हो जाता है, किन्तु यह कहना ठीक नहीं क्योंकि समवाय कारण के नाश होन वाले क्षण में विभाग उत्पन्न नहीं हो सकता क्योंकि समवाय कारण कार्य के रहने तक बराबर रहता है यह नियम है। अतः एक यह संयोग दव्य के उत्पन्न करने में किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता नहीं रखता है परन्तु गुण को कर्म के पैदा करने में दूसरी वस्तुओं की आवश्यकता है। अपना सहाधिकरण मालूम होने से। बड़े पीपल के वृक्ष पर बैठा हुआ जो बन्दर है, यद्यपि वह पीपल की एक शाखा पर बैठा है तो भी यही अनुभव होता है कि पीपल के वृक्ष से बन्दर का संयोग है। केवल अभाव के कारण अनित्य सिद्ध होने से परमाणु में रहने वाला प्रमाणिरत होता है, किन्तु ऐसा प्रतीत नहीं होता। इसलिए विभु का भी उपाधि भेद के कारण के कारण एक भाग होता है और भाग वे होने वाला संयोग भी एक देश में ही होता है। अतःएव परमाणु स्थिति संयोग का भसी दिशा आदि के साथ पृथक् करने वाला विचार करना चाहिये। प्रश्न- विभाग में संयोग की उत्पत्ति किकस प्रकार हो सकती है।

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