सूत्र :तदभावादणु मनः 7/1/23
सूत्र संख्या :23
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यदि मन विभु होता तो उसका एक ही समय में सारी इन्द्रियों से सम्बन्ध रखने वाला होतो तो उसका एक ही समय में सारी इन्द्रियों से सम्बन्ध होने से एक ही समय में सारी इन्द्रियों से सम्बन्ध होने से एक ही समय में दो इन्द्रियों के विषयों ज्ञान होना सम्भव होता, जबकि ऐसा नहींहोता इसलिए व्यापक नहीं। जबकि मन विभु नहीं तो अणु ही मानना चाहिए।
व्याख्या :
प्रश्न- केवल विभु होने से अणु होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि घट आदि सावयव पदार्थ न तो विभु है और न अणु है।
उत्तर- जब मन विभु नहीं तो एक शरीर में विभु नहीं, क्योंकि एक शरीर में विभु मानने से भी वही आक्षेप होता है अर्थात् एक ही समय में दो इन्द्रियों के विषयों का ज्ञान सिद्ध हो जाता है। यदि शरीर के किसी भाग में माना जावे तो उसके स्पर्श से रहित होने से यह सिद्ध हो जाता है कि वह अणु छोटा है।
प्रश्न- दिशा सर्वत्र रहने वाला होने से बहुत ही बड़ा सिद्ध करने में क्या प्रमाण है?