DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :विभवान्महाना-काशस्तथा चात्मा 7/1/22
सूत्र संख्या :22

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : प्रत्येक सावयव पदार्थ के साथ सम्बन्ध के साथ होने से आकाश विभु है, और उसका विभु होना सबसे बड़े होने के अतिरिक्त हो नहीं सकता, इसलिए आकाश को सबसे बड़ा कहना चाहिए, क्योंकि आकाश का गुण जो शब्द है वह भी सब जगह पाया जाता है अर्थात् जिस प्रकार पाताल में शब्द विद्यमान है उसी प्रकार कांशी में भी विद्यमान है, इससे स्पष्ट है कि आकाश दोनों स्थानों पर है, इसी प्रकार और स्थानों पर भी होने से आकाश का सर्वत्र होना पाया जाता है अतः आकाश का विभु होना सिद्ध है और वह महान् है। यदि बहुत से आकाश माने जावें उनमें विशेषता उत्पन्न करने वाला काई गुण नहीं, इसलिए ऐसा मानना व्यर्थ होगा ऐसे ही आत्मा भी प्रत्येक शरीर के साथ सम्बन्ध रखने से सबसे बड़ा सिद्ध होता है।

व्याख्या :
प्रश्न- यदि आकाश और आत्मा दोनों एक ही से हैं तो उसमें व्याप्य व्यापक सबन्ध कैसे सिद्ध करोगे, क्योंकि एक बराबर की दो वस्तु एक ही स्थान में नहीं सकती और आकाश और आत्मा में अन्तर क्या है? उत्तर- आकाश तो विभु है आत्मा व्यापक हैं तात्पर्य यह है कि आकाश और आत्मा दोनों का एक स्थान पर होना पाया जाता है परन्तु अन्तर इतना है कि आकाश सावयव पदार्थ के भीतर और निरवयव के बाहर रहता है, और आत्मा आकाश से भी सूक्ष्म होने से सावयव और निरवयव दोनों पदार्थों के भीतर और बाहर रहता है। प्रश्न- आत्मा को तो, नाना अर्थात् बहुत बता चुके हैं, वह व्यापक किस प्रकार हो सकता है? उत्तर- आत्मा दो प्रकार का है एक जीवात्मा दूसरा परमात्मा। जीव तो जाति के कारण विभु है और परमात्मा सर्वव्यापक है और स्वरूप से एक है। बहुत तो जीवात्मा हैं और प्रत्येक शरीर में व्यापक हैं और परमात्मा सारे संसार में व्यापक है। प्रश्न- क्या प्रमाण है कि परमात्मा सर्वत्र व्यापक है? उत्तर- इसलिए कि परमाणुओं में नियम-पूर्वक किया नहीं, और प्रत्येक देश में नियमानुकूल क्रिया पाई जाती है जिससे स्पष्ट है कि उनको नियम-पूर्वक चलाने वाला आत्मा वहां पर विद्यमान है जिसकी शक्ति से सारे ब्रह्याण्ड क्रिया कर रहे हैं। प्रश्न- क्या मन नित्य नहीं है क्योंकि उसका सदैव स्पर्श से रहित द्रव्य होना सिद्ध है? आकाश के सामान उसको विभु मानना चाहिए और ज्ञान आदि का समवाय कारण है संयोग का आधार होने से आत्मा के समान। इसलिए आकाश और आत्मा की समानता से मन विभु क्यों न कहा जावे?

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