DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :कारणगुणपूर्वकाः पृथिव्यां पाकजाः 7/1/6
सूत्र संख्या :6

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पृथिवी में जो रूप, रस और गन्ध हैं वे कारण के गुण के अनुसार है अर्थात् जिस प्रकार के अवयवों से कोई पार्थिव वस्तु बनती है जैसे उन परमाणुओं में रूप, रस, गन्ध होंगे वैसे ही उस कार्य में प्रगट होंगे। जिस रंग के सूत का कपड़ा बुना जावेगा उसी रंग का कपड़ा होगा, ऐसे ही जिस प्रकार के फूलों से हार बनाया जावेगा वैसा ही गन्ध उन फूलों में होगा यदि रेशम के तारों से कपड़ा बनाया जावेगा तो उसका स्पर्श रेशम के समान होगा, यदि सन के तारों से बनाया जावेगा तो उसका स्पर्श वैसा ही होगा।

व्याख्या :
प्रश्न- क्या जिसका आंख से जाने वही रूपत्व है, ऐसे ही रसना से ग्रहण किया जावे वही रसत्व है, इसी प्रकार स्पर्श और गन्ध आदि भी नाक और त्वचा से ही जाते हैं? उत्त- यदि ऐसा माना जावे तो केवल इन्द्रिय के नष्ट हो जाने से ही यह रूप है इस ज्ञान की उत्पत्ति का न होना ही सिद्ध होगा। इसलिए चक्षु मात्र वाह्य अनुभव से ग्रहण के योग्य होता है जिसकी जाति है वह रूप है और जो रूपत्व है वह इन्द्रियों से ग्रहण नहीं हो सकता। प्रश्न- क्या कोई रूप ही नहीं जो इन्द्रियों से ग्रहण न हो? उत्तर- क्योंकि केवल आंख ही जो वाह्य अनुभव है उससे ज्ञात होने के योग्य जातित्व हो वह रूपत्व है। इस प्रकार की जातित्व नीलत्व आदि हैं । प्रश्न- नीला पीला आदि एक-एक ही नित्य हैं, उनमें नीलत्व आदि जातित्व है ही नहीं क्योंकि व व्यक्ति में रहने वाले गुण है। उत्तर- ये थोड़ा नीला है, यह अधिक नीला है इस प्रकार के भेद की उत्पत्ति नहीं होगी यदि नील को नित्य माना जावे। प्रश्न- जो नील आदि में कम नीला है, यह अधिक नीला है, ऐसा विचार किया जाता है वह श्वेतपन के भेद से उत्पन्न होते हैं? उत्तर- यह नहीं क्योंकि नील की न्यूनाधिकता में श्वेतपन के भेद का कोई प्रमाण नहीं, क्योंकि यह ज्ञात होता है कि काला रंग नष्ट हो गया और श्वेतरंग उत्पन्न हो गया इसमें नील जो एक है वह अनित्य है। यदि कहो कि वह समवाय की उत्पत्ति और नाश से होता है तो यह ठीक नहीं क्योंकि नित्य वस्तु का समवाय होता ही नहीं क्योंकि समवाय पीछे से उत्पन्न होता है। यदि ऐसा ही माना जावे तो घट आदि अनित्य वस्तु भी अविनाशी मानना पड़ेंगी जो जो प्रत्यक्ष के विरूद्ध है। प्रश्न- नीला, पीलापन आदि जो गुण हैं ये गुण द्रव्य से भिन्न नहीं है क्योंकि धर्म और धर्मी एक ही होते है; न कभी धर्म से धर्मी पृथक् होता है न धर्मी से धर्म पृथक् होता है? उत्तर- यह बात नहीं, क्योंकि रूप घड़ा है, स्पर्श घड़ा है ऐसा प्रयोग नहीं होता, जिससे जाना जाता है धर्म से धर्मी पृथक् है। प्रश्न- इससे कुछ हानि नहीं क्योंकि प्रायः प्रयोग किया जाता है कि श्वेत वस्त्र है, नीला वस्त्र है, यह बात ज्ञात भी होती है। उत्तर- यह कथन तो उपचार से होता है वास्तव में यहां सर्वनाम का लोप हो गया है। श्वेत वस्त्र कहने से आशय यही है कि कपड़े में श्वेतपन है भेद के जान लेने पर ये सारे माने हुए विचार हैं ऐसा जान लिया जाता है, योंकि यह चन्दन का गन्ध है और यह चन्दन का रंग है, इस प्रकार के कथन से भी सिद्ध होता है। यदि कपड़े और रंग का भेद न माना जावे तो जिस प्रकार छूने से कपड़े का ज्ञान होता है है वैसे ही कपड़े का रंग का ज्ञान हो जाना चाहिए, जो नहीं होता। दूसरे ऐसा कहने पर कि वस्त्र लाओ तो किसी रूप को ले आवे रंग लाओ ऐसा कहने पर किसी द्रव्य को ले आवे। प्रश्न- ऐसा ही मान लो कि भेद भी है और भेद नहीं भी, क्योंकि सारा भेद होने में कोई पूरी युक्ति नहीं? उत्तर- यह ठीक नहीं क्योंकि पृथक् करने वाले भेद के बिना दो विरूद्ध गुणों अर्थात् भेद और अभेद का एक स्थान पर रहना असंभव है। जिस प्रकार प्रकाश और अन्धकार एक स्थान में नहीं रह सकते क्योंकि दोनों में अन्योन्याभाव के होने से एक दूसरे में रहना अत्यन्ता भाव अभेद नहीं रह सकता और न इस प्रकार का प्रमाण किसी वस्तु से मिल सकता है, और यह रूप पृथिवी में बहुत प्रकार का है। पानी और अग्नि में केवल श्वेत ही रहता है। प्रश्न- जितने रंग माने गए हैं प्रायःकपड़े में रंग व रंग का रूप देखते हैं वह इनसे पृथक् है? उत्तर- वह रूप से पृथक् नहीं है क्योंकि चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण किया जाता है। यदि रूप न होता तो आंख से न देखा जाता और उसके कारण में भिन्न-प्रकार के रूप सम्मिलित हैं उससे वह रंग व रंग का दृष्टिगत होता है, क्योंकि जो गुण अवयवों में होंगे वही अवयवी में पाये जायेंगे। जहाँ भिन्न-भिन्न वस्तुओं के परमाणुओं में भिन्न-भिन्न प्रकार का रूप है, वही रूप त्रम से द्वयणुक आदि में होता हुआ वस्त्र में विद्यमान है। आशय है कि गुण जब कारण में होते हैं तब ही कार्य में आते हैं और जो कर्म से संयोग से उत्पन्न होते हैं वे पाकज कहाते हैं। यद्यपि स्वाभाविक गुणों का प्रत्यक्ष कभी संयुक्त होने की अवस्था में होता है परन्तु वे अपने उपादान कारण में भी होते हैं, कार्य में केवल प्रत्यक्ष होता है पाकज गुण संयोग से उत्पन्न होते हैं, वे संयोग से पूर्व एक पदार्थ में विद्यमान नहीं होते। जैसे संयोग किसी परमाणु में नहीं जब दो परमाणुओं को किसी विशेया प्रकार की क्रिया मिलती है तब उसमें संयोग उत्पन्न होता है। इसी प्रकार और गुणों के विषय में भी जान लेना चाहिए। प्रश्न- पृथिवी आदि में जो रूप आदि गुण हैं उनका कारण क्या है? क्या द्रव्यों का गुण है?

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