सूत्र :अप्सु तेजसि वायौ च नित्या द्रव्यनित्यत्वात् 7/1/4
सूत्र संख्या :4
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जल के परमाणुओं में रूप, रस और स्पर्श ये गुण नित्य हो सकते हैं और अग्नि के परमाणुओं में रूप और स्पर्श गुण नित्य हो सकते हैं क्योंकि जब ये द्रव्य नित्य होंगे तो उनके गुण भी नित्य होंगे।
व्याख्या :
प्रश्न- यदि नित्य द्रव्यों में रूप आदि गुणों को अनित्य माना जावे तो उसमें क्या हानि है?
उत्तर- इसलिए कि द्रव्य गुण का समवाय सम्बन्ध होता है अतः नित्य द्रव्य में स्वाभाविक गुण अनित्य नहीं हो सकता।
प्रश्न- जब नित्य आकाश का गुण शब्द अनित्य है, तो ऐसे ही नित्य आत्मा में बुद्धि अनित्य उत्पन्न होती है। इसी प्रकार इन गुणों का भी नित्य द्रव्यों में अनित्य मानने में कोई दोष नहीं?
उत्तर- ऋषि ने जो जो सूत्र में बतलाया है वह स्पष्ट नहीं होता। कि जैसे शब्द और बुद्धि में दूसरे विकार उत्पन्न होते हैं जिससे वे अनित्य हो सकते हैं किन्तु रूप आदि में स्पष्ट नहीं होता। जैसे शब्द में हल्का और तीव्र होना पाया जाता है, और बुद्धि अर्थात् ज्ञान में अज्ञान के संसकार आदि उत्पन्न होते हैं, परन्तु रूप आदि में किसी प्रकार का विकार सिद्ध नहीं होता अर्थात् किसी दूसरे गुण का ज्ञान नहीं होता।
प्रश्न- यदि रूप आदि में दूसरे गुण की प्रतीति मान ली जावे तो क्या हानि है?
उत्तर- यदि प्रतीति हो तो उसके कारण द्वयणुक आदि से आरम्भ होकर सावयव पदार्थों में विरूद्ध रूप आदि की प्रतीति हो, परन्तु अग्नि और जल में स्पर्श और रूप आदि का वैसा ही ज्ञान होता है, विरूद्ध ज्ञान नहीं होता।
प्रश्न- जल गरम है वायु ठंडी है यह ज्ञान बतलाता है कि उनमें दूसरे गुण आ सकते हैं?
उत्तर- इस प्रकार का ज्ञान तो निमित्त से दूसरी वस्तु के उसमें प्रवेश करने से होता है।
प्रश्न- अनित्य पदार्थों के गुण नित्य होंगे वा अनित्य?