सूत्र :तदभावे संयोगाभा-वोऽप्रादुर्भावश्च मोक्षः 5/2/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जब तकि मिथ्या ज्ञान रहता है तब तक सूक्ष्म शरीर के साथ सम्बन्ध आवश्यकीय है जिससे दूसरे शरीर में जातन भी आवश्यक है। जब मिथ्या ज्ञान का नाश होकर निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है तो उससे राग द्वेष नष्ट हो जाते हैं और राग द्वेष के नष्ट हो जाने से प्रवृत्ति का नाश होता है जिससे जन्म मर्ण के अदृष्ट कर्मों का फल ही दूर हो जाता है। जब कर्मों का फल अदृष्ट, जो प्राण और मन का शरीर से निकाल कर दूसरे में ले जाने का कारण था, नष्ट हो गया तो, फिर शरीर का उत्पन्न होना बन्द हो जाता हैं, बस, यही मोक्ष है।
व्याख्या :
प्रश्न- सूत्र में जो अभाव और संयोग का अभाव लिखा है उसका क्या तात्पर्य है?
उत्तर- विद्यमान शरीर का न रहना अभाव का तात्पर्य है और होने वाले शरीर का न उत्पन्न होना यह संयोग के अभाव का आशय है। अर्थात् प्राप्त हुए शरीर का पुनः न मिलना ही माक्ष है।
प्रश्न- यह अवस्था तो सदैव प्रलय के समय भी होती है तो क्या प्रलय में सारे जीव मुक्त हो जाते हैं।
उत्तर- प्रलय में जिन जीवों का उत्पन्न होना बन्द हुआ था वे सृष्टि के आरम्भ में ही जन्म ले लेते हैं, इसलिए बताया, कि जिनका सृष्टि के आरम्भ में भी जन्म न हो!
आगे अन्धकार की परीक्षा करते है कि वह द्रव्य है या गुण है।
प्रश्न- अन्धकार एक द्रव्य है, उसमें कर्म पाया जाता है। छाया के चलने का ज्ञान होने से न वहां आत्मा का प्रलय है और नहीं गुरूत्व है, न द्रवत्व ही है, न प्रेरणा है, न अविघात है अहौर नहीं संस्कार है, तो उस कर्म का क्या कारण है?