सूत्र :हस्तकर्मणा मनसः कर्म व्याख्यातम् 5/2/14
सूत्र संख्या :14
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यह पूर्व ही सिद्ध कर चुके हैं कि विभु अर्थात् सारे शरीर में व्यापक नहीं किन्तु अणु एक काल में दो इन्द्रिया के विषय का ज्ञान न होना कर चुके हैं इसलिए मन में कर्म के बिना सुख और दुःख का ज्ञान हो नहीं सकता, क्योंकि जिस इन्द्रिय से सुख-दुख होता है जब तक उस इन्द्रिय तक मन न पहुंचे अर्थात् मन का और उसका सम्बन्ध न हो, तब तक उस इन्द्रिय को ज्ञान का होना सम्भव ही नहीं। यदि मन में कर्म न हो तो ‘मेरे सिर में दर्द है’’ और ‘‘मेरे पाओं में कष्ट है’’ यह ज्ञान हो ही किस प्रकार सकता है। यद्यपि आत्मा के सारे नैमित्तिक गुण मन के सम्बन्ध पर निर्भर है, परन्तु सुख-दुख का होना सब अधिक स्पष्ट है इसलिए कहा कि हाथ पाओं की क्रिया के समान मन का कर्म भी जानना चाहिये।
प्रश्न- यदि मन को चंचल मानोगे तो मन के टिकने के बिना योग नहीं होगा और योग के न होने से आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं होगा, अतः मोक्ष भी नहीं होगी इसलिये मन का चंचल होना ठीक नहीं?