सूत्र :आत्मेन्द्रियमनोऽर्थसंनिकर्षात्सुखदुःखम् 5/2/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जब विषयों दूषित समझकर मन उदास होकर बाहर की इन्द्रियों की ओर से हटकर आत्मा में ठहरता है अर्थात् केवल आत्मा से ही सम्बन्ध रखता इन्द्रियों से नहीं, उस समय मन को कर्म में लगाने वाले गुणों के न होने से मन में कर्म उत्पन्न नहीं होता, मन नितान्त स्थिर हो जाता है। वही अवस्था, जब सारे काम करना छोड़ दे, ध्यान कहाती है और वही योग है। जब योग हो गया तो मन में कर्म आरम्भ ही नहीं होता, जब योग होता है तो दुःख का अभाव होता है और कर्म दुःख दूर करने के लिये किया जाता है, जब दुःख दूर हो गया तो किसकी प्राप्ति के लिये और किसके त्याग के लिये मन कर्म करेगा। दुःख बाहर की इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य विषयों से होता है। इन्द्रियों का सम्बन्ध ही दुःख है।
व्याख्या :
प्रश्न- सुख प्राप्त करने के लिये मन यत्न करेगा, क्योंकि सुख को प्राप्त करने और दुख को दूर करने के लिये यत्न किया जाता है?
उत्तर- दुःख दूर ही जब होता है जब सुख प्राप्त होता है, क्योंकि दुःख का विरोधी सुख है और विरोधी ही दूर वाला होता है इसलिये आत्मा के साथ सम्बन्ध होने पर मन की कोई आवश्यकता नहीं रहती इसलिये काम बन्द हो जाता है।
प्रश्न- यदि प्राण और मन का कर्म आत्मा के प्रयत्न से है, तो जब जीवात्मा की मृत्यु से प्राण और शरीर से बाहर निकल कर दूसरे शरीर में प्रवेश करते हैं, वहां आत्मा का प्रयत्न न होने से उनका निकलना और प्रवेश करना दोनों असम्भव हैं और जो गर्भ में रहकर काम करते हैं उनका कारण क्या है?