सूत्र :पृथिवी-कर्मणा तेजःकर्म वायुकर्म च व्याख्यातम् 5/2/12
सूत्र संख्या :12
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस प्रकार भूचार आदि पृथिवी की नैमित्तिक क्रियायें अदृष्ट अर्थात् जीवों के कर्म से होती है, इस प्रकार अग्नि का लगना और उसमें उससे सहस्त्रों घरों का भस्म हो जाना और उन वृक्षों का उखड़ जाना आदि भी जीवों के अदृष्ट से होती है आशय यह है कि जिन जीवों को हानि वा लाभ पहुंचता है उन्हीं के कर्म के फल देने के लिये परमात्मा की प्रेरणा से यह क्रिया होती है।
प्रश्न- अग्नि सदैव ऊपर ही जलजी है वायु बराबर हिलतीहै अर्थात् तिरछी चलती है इसी प्रकार मन कर्म करता है और अणुओं में क्रिया होती है, उसका क्या कारण है?