सूत्र :नोदनापीडनात्संयुक्तसंयोगाच्च पृथिव्यां कर्म 5/2/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : इस अध्याय में कर्म की परीक्षा करते हैः-
प्रश्न- तीर आदि को तो चलता हुआ देखते है; परन्तु पृथिवी में जो क्रिया होती है उसका क्या कारण है।
पृथिवी में जो कर्म होता है उसका एक कारण तो प्रेरणाहै, दूसरे किसी वस्तु का वेग से बढ़ना है। ये तीनों तो पृथिवी के नैमित्तिक कारण हैं। और जो नैत्यिक गति है। उसका कारण जो परमात्मा उसमें व्यापक है, उसका संयोग है। आशय यह है, कि परमात्मा की व्यापकता से जड़ पृथिवी और तोरे आदि क्रिया करते हैं। और विशेष क्रिया किसी विशेष प्रेरणा और किसी भारी वस्तु के गिरने से होती है।
व्याख्या :
प्रश्न- तुमने संयुक्त संयोग का अर्थ, अर्थ टीकाकारों के विरूद्ध परमात्मा का पृथिवी में व्यापक होना कैसे किया?
उत्तर- जड़ वस्तुओं में स्वाभाविक क्रिया तो है नहीं, यदि स्वाभाविक होती तो प्रत्येक वस्तु सक्तिय दृष्टिगत होती, परन्तु यह प्रत्यक्ष के विरूद्ध है। किसी जड़ वस्तु में जब कोई गति होती उत्पन्न करता है तब ही वह क्रिया करती है है इसीलिये श्वेताश्वत उपनिषद् में जो लिखा था ‘‘संयुक्त मेतत् क्षर मक्षरंचेत्यादि’’विदित होता है, कि ऋषि का तात्पर्य संयुक्त कहने से इसी पृथिवी और परमात्मा के संयोग से है। यदि कोई कहे कि वैशेषिक और उपनिषद् से क्या सम्बन्ध, तो ऋषि ने पहिले-ही अध्याय में तत्वज्ञान के लिये वेद को ही प्रमाण माना है उसी के अनुसार यहां लिखा है।
प्रश्न- प्रतिदिन की साधारण गति के अतिरिक्त भूचाल आदि आते हैं जिससे पृथिवी की गति की गति ज्ञात होती है परन्तु वहां प्रेरणा करने वाला और किसी वस्तु का गिरना सिद्ध नहीं होता?