सूत्र :इषावयुगपत्संयोगविशेषाः कर्मान्यत्वे हेतुः 5/1/16
सूत्र संख्या :16
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : तीर में एक काल में न होने वाले संयोग विशकष कर्म कई प्रकार का सिद्ध होता है। आशय यह है, कि तीव्रता से चलते हुए तीर यद्यपि क्रिया विद्यमान होती है, परन्तु वह दीवार के साथ मिलते ही चलना बन्द कर देता है। यहां इस क्रिया का नाश करने वाले आश्रय का नाश तो हो नहीं सकता, क्योंकि आश्रय विद्यमान है अर्थात् जिस तीर के भीतर क्रिया कार्य कर रही थी वह तीर विद्यमान है, वहाँ विरूद्ध गुण भी नहीं होता कि जिससे कर्म का नाश हुआ हो। यही विदित होता है, कि कर्म से उत्पन्न हुआ संयोग ही उस कर्म का नाश करने वाला है। अर्थात् तीर के चलने से जो दिवार के साथ संयोग उत्पन्न हुआ वह मिला यही तीर के चलने को रोकता है। वह संयोग चौथे क्षण में उत्पन्न होकर पांचवें क्षण में कर्म का नाश कर देता है।
व्याख्या :
प्रश्न- पाँचवां और चौथा क्षण कहने से क्या आशय है? क्या यहा आरम्भ होता है और समाप्त होता है?
उत्तर- पहिले क्षण में कर्म उत्पन्न होता है, दूसरें क्षण में जो तीर और कमान का संयोग था उसका नाश होता है, तीसरे क्षण में तीर कमान से पृथक होकर पाँचवें क्षण में वह क्रिया नष्ट हो जाती है। इसलिए एक साथ न होने वाले संयोग विशेष से कर्म का नाश होना विदित होता है।
प्रश्न- यहां संयोग विशेष कहने से क्या आशय है?
उत्तर- विशेष प्रकार का संयोग ही कर्म का नाश करता है। यदि एक संयोग कर्म का नाश करता, तो कर्म कहीं रहा ही नहीं सकता। इसलिए विशेष संयोग से ही कर्म का नाश होता है। प्रत्ये संयोग से नहीं, यह आशय है।
प्रश्न- प्रेरणा से उत्पन्न हुआ कर्म तो प्रतीत हुआ। संस्कार से उत्पन्न हुआ कर्म कौन सा होता है?