सूत्र :आत्मसंयोगप्रयत्नाभ्यां हस्ते कर्म 5/1/1
सूत्र संख्या :1
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : द्रव्र और गुण की परीक्षा करके, इस पांचवे अध्याय में कर्म की परीक्षा आरम्भ करते हैं और उसमें प्रयत्न से उत्पन्न होने वाले उत्क्षेपण और बिना प्रयत्न उत्क्षेण के पुण्य के कारण जो कर्म हैं और जो कर्म पाप का कारण है, और जो पाप-पुण्य दोनों से पृथक् उसासीन कर्म हैं, उन सबका पहले आन्हिक में वर्णन होगा।
आत्मसंयोग प्रयत्नाभ्यां हस्तेकम ।1।
अर्थ- आत्मा के संयोग और और प्रयत्न से हाथ में कर्म होता है। आशय यह है कि हाथ जो कुछ कर्म करता है उसका कारण आत्मा का संयोग और प्रयत्न है। क्योंकि यदि आत्मा का संयोग ही कर्म का कारण माना जावे तो आत्मा के शरीर में व्यापक होने से उसका प्रतिक्षण हाथ से संयोग बना रहता है, और जिस अंग के साथ आत्मा का सम्बन्ध न हो उसका जीवित रहना ही सम्भव नहीं, इसलिए प्रत्येक जीवित अंग से आत्मा का सम्बन्ध होने से उसमें चेष्टा होनी चाहिए, इस दोष को दूर करने के लिए ऋषि ने बतलाया कि जब आत्मा हाथ के चेष्टा देने की इच्छा रखता है तब हाथ में कर्म होता है। इस कर्म का समवाय कारण हाथ है और असमवाय कारण इच्छा-शक्ति कत्र्ता है। और इस समूह का नाम चेष्टा अर्थात् कर्म करना है।
व्याख्या :
प्रश्न- समवाय, कारण किसको कहते है?
उत्तर- अवयवों का जो संयोग है, जिससे कार्य बना है, जिसके बिना कार्य रह ही नहीं सकता अर्थात् अवयवों के संयोग का समवाय कारण कहते हैं।
असमवाय कारण किसको कहते हैं?
उत्तर- जिन अवयवों के संयोग से बनती है वे अवयव उस वस्तु के असमवाय कारण होते हैं।
प्रश्न- निमित्त कारण किसको कहते हैं?
उत्तर- संयोग का कराने वाला और संयोग के लिए साधनों की आवश्यकता पड़ती है वे सब कारण कहलाते हैं।