सूत्र :वेदलिङ्गाच्च इति द्वितीय आह्निकः इति चतुर्थोऽध्यायः4/2/11
सूत्र संख्या :11
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : वेद के प्रमाण से भी ब्रह्यदेव ऋषि आदि की उत्पत्ति लिखी है, जिनका बनाने वाला ईश्वर है। जैसे यजुर्वेद अध्याय 31 अर्थात् पुरूष सूक्त में दिखलाया है कि उससे देवऋपि आदि उत्पन्न हुए। जिस प्रकार योनिज और अयोनिज दो प्रकार के शरीर होते हैं और वे पार्थिव होते हैं ऐसे शेष वायु आदि से बने हुए शरीर नहीं होते है, किन्तु वे सब अयोनिज ही होते हैं, क्योंकि पिता वीर्य और माता के रज से मिल कर जो शरीर बनता है वह शरीर योनिज कहलाता है, परन्तु रज और वीर्य दोनों पार्थिव होते हैं इसलिए इनसे बना हुआ शरीर पार्थिव ही होगा, यह कार्य कार्य कारण के नियम से नियत बात है ऐसे ही जल की इन्द्रिय रसना, अग्नि की आंख और वायु की त्वचा है। आकाश का कान है जो अपन-अपने भूत के गुण गन्ध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द को प्रत्यक्ष करते हैं और मट्टी से उत्पन्न हुए विषय घट आदि और पहाड़ और स्थावर अर्थात् वृक्ष फल औ घास आदि हैं।
चौथे अध्याय का दूसरा आन्हिक समाप्त।