सूत्र :व्यवस्थातो नाना 3/2/20
सूत्र संख्या :20
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सुख-दुःख और ज्ञान की व्यवस्था करने से सिद्ध होता है कि आत्मा अनेक हैं यदि एक ही आत्मा होती तो कोई मनुष्य सुख का और दुःख का अनुभव नहीं करता। कोई मूर्ख है कोई विद्वान है। इसी प्रकार की अवस्थाओं से ज्ञात होता है कि आत्मा अनेक है। यदि किसी पात्र में लाल रेग का जल हो और किसी में काला, तो उनको एक नहीं कहते, इसलिए भिन्न-भिन्न अवस्थायें एक ही समय में एक आत्मा की सम्भव नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न- जिस प्रकार एक ही शरीर की लड़कपन, युवावस्था और बुढ़ापन आदि अनेक अवस्थायें होती है और शरीर एक ही होता है, ऐसे ही एक आत्मा की भी अनेक अवस्थायें हो सकती हैं।
उत्तर- शरीर जिस समय बालक होता है उस समय युवा नहीं होता, और जब युवा होता है उस समय वृद्ध नहीं होता, परन्तु एक ही समय में कोई सुखी कोई दुःखी कोई मूर्ख और कोई विद्वान पाये जाते हैं, इसलिए यह अवस्थाओं का परिणाम न अर्थात लौट बदल शरीर की अवस्थाओं के समान नहीं है, अतः आत्मा को अनेक ही मानना पड़ेगा।
प्रश्न- जिस प्रकार अनेक घड़ों में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब पड़ता है, अब जो घड़ा चलता है उसमें तो सूर्य चलता प्रतीत होता है, और जो घड़ा ठहरा हुआ है उसमें सूर्य भी ठहरा हुआ हैउसमेंसूर्य भी ठहरा हुआ ज्ञात होता है, इसी प्रकार नाना अन्तःकरणों के साथ आत्मा का सम्बन्ध है जो अन्तःकरण दुःख को अनुभव करता है, और जो अन्तःकरण सुखी है उसका आत्मा सुखी प्रतीत होती है, जो अन्तःकरण निर्मल है उसका आत्मा ज्ञानी प्रतीत होता है और जो अन्तःकरण मलिन है उसका आत्मा अज्ञानी न्रतीत होता है।
उत्तर- यदि सुख-दुःख और ज्ञान का आश्रय अन्तःकरण होता तो यह हेतु ठीक परन्तु अन्तःकरण साधन है। और उसका भेद स्वयं है या उसका कोई कारण है? जिस प्रकार घड़े का चलना किसी दूसरे निमित्त से हो सकता है, बिना किसी कारण से घड़ा चल नहीं सकता, इसी प्रकार अन्तःकरण, बिना आत्मा के जड़ होने से कुछ ही नहीं सकता, फिर उसकी अवस्था भेद किस प्रकार माना जा सकता है? जब उसमें अवस्था भेद न हो तो आत्मा में अवस्था भेद किस प्रकार हो सकता है। दूसरे अन्तःकरण और आत्मा में कितना अन्तर है। जिससे अन्तःकरण पर आत्मा का प्रतिबिम्ब पड़ता है? आत्मा अन्तःकरण के भीतर-बाहर व्यापक है इसलिए यह विचार ठीक नहीं। इससे आत्मा का अनेक होना ही मानना ठीक है। इसके लिए दूसरा प्रमाण और देते हैं।