सूत्र :न तु शरीरवि-शेषाद्यज्ञदत्तविष्णुमित्रयोर्ज्ञानं विषयः 3/2/17
सूत्र संख्या :17
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : सुख-दुःख का ज्ञान होना ही, आत्मा की सत्ता को बतलाने वाला ज्ञात होता है। यदि यह ज्ञान आत्मा को छोड़कर शरीर का गुण माना जावे, तो जिस प्रकार यज्ञदत्त और विष्णु मित्र के शरीर पृथक् पृथक् सिद्ध होते हैं, और उनके शरीर की ऊचांई, रंग और आकृति आदि शरीर के गुण भी भिन्न-भिन्न पाये जाते हैं, उसी प्रकार ज्ञान का भी, इन्द्रियों से पृथक्-पृथक् प्रकाश होना चाहिए था कि विष्णु मित्र के शरीर का ज्ञान ऐसा है जब दोनों का ज्ञान इन्द्रियों का विषय नहीं और शरीर इन्द्रियों का विषय है, इससे स्पष्ट विदित होता है कि आत्मा के आश्रय ज्ञान रहता है शरीर के आश्रय नहीं रहता। अतः सुख-दुःख इच्छा द्वेष और ज्ञान आदि आत्मा के ही हैं। आशय यह है कि विपक्षी ने जो उपचार को सन्दिग्ध बतलाया उसका उत्तर कणादजी ने यह दिया कि उपचार आत्मा से शरीर के गुणों का होता है और ‘‘मैं’’ इस शब्द का शरीर में उपचार से ही ग्रहण होता है। यह उपचार निश्चितयात्मक है सन्दिग्ध नहीं इसलिए हमारा पक्ष सत्य है।