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वैशेषिक दर्शन-COLLECTION OF KNOWLEDGE
DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

Anhwik

Shlok

सूत्र :अहमिति मुख्ययोग्याभ्यां शब्द-वद्व्यतिरेकाव्यभिचाराद्विशेषसिद्धेर्नागमिकः 3/2/18
सूत्र संख्या :18

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : मैं हूं ऐसा ज्ञान आत्मा की सत्ता को बतलाने वाला है शरीर का बतलाने वाला नहीं, यह केवल शास्त्रों से सुना हुआ नहीं प्रत्युत मन से प्रत्यक्ष होता है जिससे वह अपने आपको सुखी वा दुःखी मानता है। जिस प्रकार व्यतिरेक अर्थात् पृथक् करने से शब्द गुण बिना किसी व्यभिचार के आकाश में सिद्ध हो चुका है। इसी प्रकार ‘‘मैं’’इस शब्द का प्रयोग भी व्यतिरेक से आत्मा के आश्रय सिद्ध होता है। जबकि आठों द्रव्यों में इस शब्द का प्रयोग हो ही नहीं सकता तो उनके कार्य शरीर में किस प्रकार हो सकता है? इसलिए व्यभिचार दोष में रहित ‘‘मैं’’ शब्द आत्मा के आश्रय व्यतिरेक से स्पष्ट सिद्ध हो जाता है।

व्याख्या :
प्रश्न- प्रत्यक्ष सावयव और मूर्तिमान शब्दार्थ का हो सकता है, आत्मा निवयव है रूप रहित है, इसलिए उसका प्रत्यक्ष हो ही नहीं सकता। जब आत्मा का प्रत्यक्ष नहीं तो ‘‘मैं’’ इस शब्द का आश्रय शरीर को ही मानना चाहिए क्योंकि जैसे ‘‘मैं’’ मोटा हूं ‘‘मै। दुबला हूं गोरा हूं काला हूं’’ इस ज्ञान का आश्रय, उपचार से शरीर की जगह आत्मा को मानते हो ऐसे ही मैं सुखी और दुःखी हूं को भी शरीर ही मानो? उत्तर- यह जो कुछ कहा गया कि प्रत्यक्ष मूर्तिमान और सावयव पदार्थ का होता है, यह नियम केवल बाह्यप्रत्यक्ष के लिए है मन के प्रत्यक्ष के लिए नियम नहीं है। मन निराकार और निरवयव पदार्थ का भी अनुभव कर सकता है जैसे सुख-दुःख कोई सावयव और साकार वस्तु नहीं परन्तु उनका प्रत्यक्ष मन से ही होता है ऐसे ही आत्मा का प्रत्यक्ष भी मन से ही होता हैं। प्रश्न- सुख-दुःख गुण है, उनका आश्रय होना चाहिए, और आश्रय कोई प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए उनका आश्रय शरीर ही समझना चाहिए। जैसे गर्म और सुगन्धित जल में गर्मी और सुगन्ध का कोई आश्रय न देखकर उसको जल में ही समझते हैं। उत्तर- सुख-दुःख आश्रय रहित नहीं किन्तु उनका आश्रय मन और आत्मा है। जैसे पानी में गर्मी आश्रय से रहित नहीं, किन्तु तेज जो जल से सूक्ष्म है, वह उसमें विद्यमान है उस तेज के गुण गर्मी को उपचार से पानी में मानते हैं ऐसे ही शरीर में सूक्ष्म आत्मा विद्यमान है और उसके गुणों का उपचार से शरीर में होना मानते हैं। इसलिए ज्ञान का अधिकरण आत्मा हैं यह प्रत्यक्ष से प्रतीत होता है। आत्मा के होने को सिद्धि करके अब उसके एक वा बहुत होने का विचार करते हैं। पहिले पूर्व पक्ष बतलाते हैं। कि आत्मा एक है-