DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
Language

Darshan

Adhya

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सूत्र :अहमिति शब्दस्य व्यतिरेकान्ना-गमिकम् 3/2/9
सूत्र संख्या :9

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : पूर्व के तीन सूत्रों में पूर्व पक्षी के प्रश्नों को रखकर अब सिद्धांती (दर्शनकार) उसका उत्तरदेते हैं- आत्मा में केवल शास्त्र ही प्रमाण है, अन्य कोई प्रमाण नहीं यह ठीक नहीं है क्योंकि ‘‘मैं हूं’’ इस वाक्य के अर्थो के सद्भाव का ज्ञान होता है जिससे अनुमान होता है कि आत्मा है, क्योंकि मैं हूं इस वाक्य के कहने से जिसके होने को स्वीकार किया जाता है वह अवश्य है, और वह अपने आपको पृथ्वी आदि से पृथक समझता है। इससे ‘‘मैं’’ शब्द से जिसका ज्ञान होता है वह तत्वों से भिन्न है, क्योंकि कभी यह विचार नहीं होता कि मैं पृथ्वी हूं या जल हूं अथवा अग्नि वायु वा आकाश हूं? या काल हूं या दिशा हूं?

व्याख्या :
प्रश्न- यह मान लिया जावे कि ज्ञान शरीर में होता है? उत्तर- तो ऐसा प्रत्येक शरीर में हो सकता है अर्थात् दूसरे के शरीर को भी मैं हूं ऐसा मान सकते हैं परन्तु दूसरे के शरीर के का ‘‘मैं’’ कहने से सम्पूर्ण कथन ही बिगड़ जावेगा, जिसका वक्ता सर्वदा अपने ही लिए प्रयोग करता है। यदि ‘‘मैं’’ प्रत्येक शरीर के लिए नहीं रहेगी। यदि प्रत्येक शरीर अपने को ‘‘मै’’ कह सकता हैतो मेरे शरीर में पीड़ा होती है यह ज्ञान असत्य होगा, परन्तु ऐसा प्रयोग प्रत्येक समय किया जाता है जिसमें किसी प्रकार का दोष भी नहीं प्रतीत होता, इसलिए अपने शरीर के लिए ‘‘मैं’’ का प्रयोग नहीं होता किन्तु ‘‘मेरा’’ ऐसा प्रयोग किया जाता है, अतः जबकि यह शब्द आठ द्रव्यों की सत्ता को सूचित नहीं करता, तो शेष जो नवां है उसके लिए यह शब्द कहा जाता है, इसलिए ‘‘मै’’ के कहने से आत्मा का अनुमान होता है। प्रश्न- यह अनुमान सामान्यतो दृष्ट है जिसमें दोष का होना सम्भव है, इसलिए इससे आत्मा का होना सिद्ध नहीं होता? उत्तर- जबकि मन के संयोग से आत्मा का ज्ञान होता है जिससे कहता है कि ‘‘मैं’’ दुःखी हूं,‘‘ इससे दुःख का अनुभव करने वाला आत्मा प्रतीत होता है और यह कोई नियम नहीं कि अनुमान और शब्द से जानी हुई बात असत्य हो। प्रश्न- शब्द और अनुमान से जो ज्ञान होता है वह मिथ्या ज्ञान को दूर करने के योग्य नहीं होता, क्योंकि केवल शब्द के सुनने से किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान नहीं होता, किन्तु सुन्न के उपरान्त मनन करने के लिए निधिध्यासन की आवश्यकता है जिससे उसका साक्षात्कार हो जावे? उत्तर- भ्रम होना तो किसी दोष के कारण, प्रत्येक प्रमाण से जाने हुए पदार्थ में सम्भव है। प्रायः प्रत्यक्ष में भी किसी कारण से धोखा हो जाता है। जब कि ‘‘मैं हूं‘‘इस बात का सदैव एक ज्ञान होता है, तो मेरे होने में कोई सन्देह ही नहीं रहता। अब पूर्व पक्षी कहता है-