DARSHAN
दर्शन शास्त्र : वैशेषिक दर्शन
 
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सूत्र :तस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्याते 3/2/5
सूत्र संख्या :5

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : जिस प्रकार वायु की परमाणु रूप अवस्था से उसका गुण वाला होने से द्रव्य का नित्य होना सिद्ध होता है, इसी प्रकार आत्मा भी द्रव्य और नित्य है।

व्याख्या :
प्रश्न- आत्मा के गुण क्या हैं जिससे द्रव्य कहा जावे? उत्तर- सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और ज्ञान और प्रयत्न आदि। प्रश्न- यदि सुख दुःख आत्मा का गुण माना जावे तो सर्वदा दुःख का रहना मानना पड़ेगा, क्योंकि गुण और गुणी का समवाय सम्बन्ध है। इसलिए दुःख का नाश जो मुक्ति है वह कभी हो ही नहीं सकती और सुख के नित्य होने से उसका कभी अभाव ही नहीं हो सकता, इससे कभी बन्धन नहीं हो सकता। इसी प्रकार इच्छा और द्वेष दो विरूद्ध गुण एक साथ कभी नहीं रह सकते। यदि एक साथ रहना माना जावे तो उनका परस्पर विरोध नहीं रहना चाहिए क्योंकि जब अधिकारण में रहते हुए दोनों पाये जावें, दोनों विरूद्ध नहीं किन्तु परस्पर विरूद्ध होना सिद्ध है। जिस समय जीवात्मा सुख का अनुमव करेगा, उस समय दुःख का अनुभव नहीं कर सकता। दूसरा प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि जीव का स्वाभाविक गुण है या नैमित्तिक? उत्तर- सुख, दुःख और इच्छा द्वेष ये चारों आत्मा के स्वाभाविक गुण नहीं हैं किन्तु नैमित्तिक गुण हैं जो अन्य वस्तु के निमित्त से होते हैं। यदि आत्मा के अनुकूल वस्तु मिलती है तो सुख उत्पन्न होता है, और यदि प्रतिकूल वस्तु का सम्बन्ध हुआ तो दुःख मानता है। इस सुख दुःख का होना आत्मा के अनुकूल और प्रतिकूल वस्तु पर निर्भर है। इसी प्रकार अनुकूल वस्तु को देखकर उसके प्राप्त करने की इच्छा होती है। ज्ञान दो प्रकार का है, एक स्वाभाविक जो जीवात्तमा का स्वाभाविक गुण है।, दुसरा नैमित्तिक जो कारण के द्वारा प्राप्त किया जाता है। अर्थात् मन इन्द्रिय और आत्मास के संयोग से उत्पन्न होता है। प्रश्न- जब ये गुण नैमित्तिक है तो आत्मा का द्रव्य होना कैसे सिद्ध होगा। उत्तर- प्रत्येक पदार्थ के दद्रव्य होने की सिद्धि उसके क्रिया और गुण से होती हैं। जीवात्मा में सुख-दुःख प्राप्त करने की शक्ति है, यद्यपि ये गुण मन के द्वारा उत्पन्न होते हैं, तो भी क्रिया आत्मा के संयोग से उत्पन्न होती है, जैसे चुम्बक के समीप होने से लोहे में क्रिया उत्पन्न होती है। लोहे में क्रिया बिना किसी कारण के चुम्बक की सत्ता को सिद्ध करती है। प्रश्न- आत्मा का नित्य होना किस प्रकार हो सकता है, क्योंकि शरीर के अभाव में आत्मा का होना सिद्ध नहीं हो सकता, इसलिए शरीर के साथ ही आत्मा उत्पन्न होता है, और शरीर के साथ ही आत्मा नष्ट होता है? उत्तर- यदि ऐसा माना जावे तो सब जीवों की आत्मा को एक ज्ञान होना चाहिए, क्योंकि इस समय तो पूर्व जन्म के संस्कारों की न्यूनाधिकता से ज्ञान की न्यूनाधिकता सम्भव है, परन्तु जब सब आत्मा नई उत्पन्न हुई हैं तो प्रश्न यह उत्पन्न होगा कि उनके ज्ञान में न्यूनाधिकता किस प्रकार हुई।? यदि कहें कि किस जिस प्रकृति से वे उत्पन्न हुए हैं उनमें अन्तर होने से उनके ज्ञान में अन्तर हो जावेगातो ऐसी अवस्था में जीव की प्रकृति से उत्पन्न हुआ सिद्ध करना पड़ेगा, जिसका खण्डन पूर्व हो चुका है। क्योंकि जब तक उपादान में उन गुणों का होना न हो जावें तब तक कार्य में उनका होना कैसे माना जा सकता है। यह सिद्ध हो चुका है कि जो गुण्एा कारण में होते हैं वे ही कार्य में होतें हैं।

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