व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : यद्यपि ज्ञान और प्रयत्न ही आत्मा के लिगंन हैं, परन्तु प्राण अपान अर्थात् स्वांस का भीतर लेना और बाहर निकालना निमेष और उन्मेष=पलक खोलना और मींचना, जीवन=बढ़ना घटना अवस्था बदलना, करना न करना, और उलटा करना, मन की गति और इन्द्रियों की गति, सुख-दुःख इच्छा द्वेष, ये भी आत्मा के लिगंन है। पूर्व कहा कि प्राण आत्मा का लिगंन है प्राणों का काम ही भूख और प्यास है अर्थात् जो भोजन को पचाते हैं, परन्तु यह बात अंजन में भी पाई जाती है, इसलिए यह लक्षण अतिव्याप्त हो गया यह लक्षण वृक्षादि निर्जीव वस्तुओं में भी पाया जाता हैइसलिए कहा उपान अर्थात् भोजन को पचाकर बाहर निकालना जिससे फिर क्षुधा लगती है, परन्तु यह बात भी अंजन और वृक्षों में पाई जाती है इसलिए कहा आंख का खोलना और बन्द करना। यद्यपि ये गुण अंजन में विद्यमान नहीं हैं परन्तु बहुत पुष्पों और वृक्षों में पाये जाते हैं, इसलिए कहा जीवन अर्थात् बढ़ना घटना। ये बात भी वृक्षों में विद्यमान थी इसलिए कहा मन के ज्ञान के अनुकूल कार्य करना अर्थात् करना न करना उलटा करना। यह काम न तो वृक्षों में पाया जाता है नहीं अंजन में विद्यमान है यद्यपि इंजन ड्राइवर के बिना चल सकता है परन्तु उलटा चलना, खड़ा हो जाना, आगे चलना यह ड्राइवर की सत्ता को सि़ करते हैं। इसलिए जिसमें ज्ञान पूर्वक तीन प्रकार के काम होते हैं वहां आत्मा को मानना चाहिए। और दूसरे इन्द्रियों की चेष्टा भी अर्थात्देखना, सुनना और सूघंना आदि भी आत्मा की सत्ता को बताते हैं, क्योंकि यदि इन्द्रियों से भिन्न कोई आत्मा न हो तो इन्द्रियों के होने पर भी ज्ञान और कर्म न होता, क्योंकि इन्द्रियां कारण है न कि कत्र्ता। कत्र्ता के बिना करण कुछ भी काम नहीं कर सकते। करण के कार्य से कत्र्ता का होना पाया जाता है जैसे लकड़ी चिरी हुई मेरे पास है, एक आरी मेरे पास है। आरी चीरने वाले ने आरी के द्वारा इस लकड़ी को चीरा है, ऐसे ही, इन्द्रियों के कार्य आत्मा के होने को सिद्ध करते हैं। सुख-दुःख से भी आत्मा की सत्ता का पता चलता है कि कोई ऐसी वस्तु है जो अपने अनुकूल से सुख और प्रतिकूल से दुःख का अनुभव करती है, क्योंकि सुख-दुःख दो परस्पर विरूद्ध गुण है जिनका किसी प्राकृतिक वस्तु से होना सम्भव ही नहीं, क्योंकि हम किसी वस्तु में दो विरूद्ध गुणों को होना नहीं देखते। इसलिए दो परस्पर विरूद्ध गुणों का एक में रहना असम्भव है। अतः दोनों विरूद्ध गुणों को भिन्न-भिन्न कालों में ग्रहण करने वाली शक्ति, जिसकर यह स्वाभाविक गुण नहीं जो उनके अधिकरण से प्राप्त करती है, अवश्य ही माननी पड़ेगी। इच्छा अर्थात् अनुकूल से राग, और द्वेष अर्थात् प्रतिकूल से घृणा या सुख की प्राप्ति की इच्छा और दुःख के दूर करने की इच्छा, ये भी जीवात्मा की सत्ता सूचक लिगंन है, क्योंकि इच्छा और द्वेष भी दोनों विरूद्ध गुण हैं इनका किसी प्राकृतिक वस्तु में पाया जाना सम्भव ही नहीं और प्रयत्न अर्थात् ज्ञान के अनुकूल क्रिया करना भी जीवात्मा की सत्ता का लिंग है।
व्याख्या :
प्रश्न- प्राण अपान से जीवात्मा के होने का किस प्रकार प्रमाण मिलता है।
उत्तर- आंख बन्द होने में संयोग और बन्द न होने में वियोग गुण पाया जाता है। ये संयोग और वियोग कर्म के बिना नहीं उत्पन्न हो सकते, इसलिए इससे कर्म का होना सिद्ध है और कर्म बिना कत्र्ता के हो नहीं सकता अतः जिसकी इच्छा पूर्वक कर्म से संयोग वियोग होते हैं वह कत्र्ता जीवात्मा अवश्य है यह सिद्ध होता है, क्योंकि जिस प्रकार पुतलियां नाचती हुई देखकर तार का हिलाने वाला कोई है ऐसा अनुमान करते हैं। यही व्यवस्था यहां समझो।
प्रश्न- जीवन से किस प्रकार आत्मा का होना सिद्ध होता है?
उत्तर- जिस प्रकार गृह का स्वामी गृह की मरम्मत करता है, निष्प्रयोजन चूने आदि को निकाल देता है, और अच्छे-अच्छे को लगाता है। ऐसे ही शरीर का स्वामी घावों को भरता है, शरीर को बढ़ाता है और मल को निकालता है; भोजन के सार भाग को ग्रहण करता है इससे स्पष्ट विदित होता है कि-
प्रश्न- चेतना अर्थात् ज्ञान का अधिकरण शरीर है, क्योंकि उसके इस कहने से ‘‘मैं गोरा हूं’’ ‘‘मैं काला हूं’’मोटा हूं ,दुबला हूं’’ पता लगता है?
उत्तर- जिस प्रकार माल के लूटने से। और घर के जलने से प्रायः कहते हैं कि ‘मेरा नाश हो गया’’ वास्तव में उसका कुछ भी नहीं बिगड़ा केवल, घर को अपना मानकर उपचार से उसके नाश को अपना समझज्ञ रहा है। इसी प्रकार उपचार से, कभी-कभी शरीर के धर्म को अपना मानता है, घर जलने से अपना नाश मानने के समान वास्तव में शरीर को अपने से पृथक् मानता है और कहता है कि मेरा शरीर पीड़ा करता, मेरा शरीर थकित हो गया आदि।
प्रश्न- क्या ज्ञान दूसरे द्रव्य के सहारे नहीं रह सकता, जो उसको आत्मा का गुण माना जावे?
उत्तर- आठ द्रव्यों में तो ज्ञान का होना बतोर के पाया नहीं जाता। इसलिए आठ के अतिरिक्त केवल आत्मा ही है। पृथ्वी में ज्ञान वाली होती, ज्ञान से रहित कोई न होती। यदि पानी में ज्ञान होता, तो भी ऐसा ही होता। इसी प्रकार अग्नि, वायु, आकाश और दिशा में भी समझ लेना चाहिये। मन ज्ञान प्राप्त करने का साधन है, ज्ञान के रहने की जगह नहीं। जबकि आठ द्रव्यों में ज्ञान मानना प्रत्यक्ष के विरूद्ध है, तो इससे अनुमान होता है कि ज्ञान आत्मा का गुण है।
प्रश्न- आत्मा का द्रव्य और नित्य होना सिद्ध नहीं होता?