सूत्र :प्रयत्नायौगपद्याज्ज्ञानायौगपद्याच्चैकम् 3/2/3
सूत्र संख्या :3
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : एक काल में न तो कर्मेंद्रियां कार्य करती हैं, और नहीं दो ज्ञान के विषयों का ज्ञान होता है, इसलिए मन एक ही है। यदि एक शरीर में बहुत से मन होते, तो एक साथ ज्ञान होना और एक साथ कर्म होना सम्भव होता।
व्याख्या :
प्रश्न- अब नाचने वाले मनुष्य को एक हाथ-पांव और अंगुलियों को चलाते देखते हैं तो स्पष्ट को विदित होता है कि एक साथ ही कर्मेद्रियां कार्य करती हैं। इसलिए मन अनेक हो सकते हैं।
उत्तर- यह विचार ठीक नहीं। मन के अति चंचल होने से ऐसा भ्रम होता है। वास्त्व में उसमें भी त्रम होता है, एक साथ क्रिया नहीं होती। जो लोग मन की चंचलता से अनिभिज्ञ हैं, वे एक साथ क्रिया होना मान लेते है उससे उन लोगों का मन भी, जो शरीर में पांच मन मानकर सारी इन्द्रियों में एक साथ क्रिया होना बतलाते हैं, खण्डित हो जाता है, क्योंकि जब एक मन से काम चल जाता है तो व्यर्थ ही पांच की कल्पना ठीक नहीं।
प्रश्न- गुड़ को उठाकर खाने से त्वचा और रसना इन्द्रिय दोनों को एक साथ ही ज्ञान हो जाता है कि यह गुड़ मीठा है और कठोर है।
उत्तर- यह विचार भी मन की चंचलता न जानने के कारण उत्पन्न होता है। इसमें भी परम्परा विद्यमान हैं। इसी प्रकार जो मन के अनेक होने में हेतु दिए जाते हैं, वे सब निर्बल हैं और मन तीव्र गति को समझने से सब खण्डित हो जाते हैं, इसलिए अधिक बाद विवाद न करके यहीं समाप्त करते हैं।