सूत्र :आत्मेन्द्रियार्थसंनि-कर्षाद्यन्निष्पद्यते तदन्यत् 3/1/18
सूत्र संख्या :18
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : आत्मा, इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध से जो ज्ञज्ञन पैदा होता है वह हेत्वाभासों से पृथक् है अर्थात् इन्द्रिय और अर्थ के सम्बन्ध को जो आत्मा लिगंन है वह अप्रसिद्ध विरूद्ध और अनैकान्तिक से भिन्न है अर्थात् वह सत् हेतु है, हेत्वाभास नहीं।
व्याख्या :
प्रश्न- यह ज्ञान आत्मा के होने का लिगंन किस प्रकार है?
उत्तर- आत्मा के अभाव में अर्थात् मरने पर शरीर में ज्ञान नहीं रहता या जड़ वस्तुओं में ज्ञान का अभाव पाया जाता है। दूसरे यह ज्ञान दो प्रकार से आत्मा को सिद्ध करता है प्रथम यह कि ज्ञान गुण है जो बिना किसी द्रव्य के नहीं रह सकता। मृत शरीर में न रहने से और स्वप्न अवस्था में भी न रहने से उसका आश्रय शरीर नहीं माना जा सकता, इसलिए शरीर से पृथक् किसी द्रव्य का गुण ज्ञान है। अतः शरीर से पृथक् आत्मा का गुण ज्ञान है। दूसरे इस विचार से भी जिसको मैंने जाना था उसी को मैं बुलाता हूं। यह बलाने और जानने वाला ‘‘मैं’’शरीर से भिन्न सिद्ध होता है। इसलिए ज्ञान और प्रयत्न ये दो ही आत्मा के लिगंन सिद्ध होते हैं। अकेला ज्ञान परमात्मा में हो सकता है, क्योंकि वह सर्व व्यापक होने से क्रिया से रहित है। केवल कर्म सूर्य चन्द्रमा और अनेक प्राकृतिक वस्तुओं में विद्यमान होने से ज्ञान के समान कर्म ही आत्मा का लिगंन है।