सूत्र :तस्य द्रव्यत्वनित्यत्वे वायुना व्याख्याते 3/2/2
सूत्र संख्या :2
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : जिस प्रकार वायु नित्य है उसी प्रकार मन भी नित्य है और गुणों वाला होने से द्रव्य होना भी सिद्ध ही है।
व्याख्या :
प्रश्न- सुख दुःख प्राप्त करने का साधन मन है, और वह द्रव्य है, यह सिद्ध नहीं किन्तु साध्य है, क्योंकि क्रिया भी सुख दुख के प्राप्त करने का कारण हो सकती है। रूप के ग्रहण होने के समान। और जो एक काल में दो ज्ञानों का न होना मन का लिगंन बताया तो उसके कारण होने से उसका नित्य होने और द्रव्य होने में क्या प्रमाण है?
उत्तर- जिस प्रकार परमाणु वायु गुण युक्त होने से नित्य हैं, और उसमें क्रिया भी पाई जाती है, इससे गुण क्रिया होने से द्रव्य कहाता है, इसी प्रकार एक काल में दो वस्तुओं का ज्ञान न होने से जिस मन का अनुमान होता है, वह भी गुण सहित होने से द्रव्य है। इसका बिना इन्द्रिय के सम्बन्ध के ज्ञानोत्पत्ति का कारण होना सिद्ध नहीं होता जिससे गुण वाला न मानकर क्रिया मानी जावे, क्योंकि द्रव्य का द्रव्य के साथ भी संयोग होता है। द्रव्य का क्रिया के साथ संयोग नहीं हो नहीं हो सकता इसलिए दुःख के ज्ञान का कारण होने से मन का द्रव्य होना सिद्ध है। रूप आदि के ज्ञान के साधन आंख आदि के समान अन्य किसी के प्रभाव से न होने से, उसका नित्य होना भी सिद्ध है।
प्रश्न- सांख्य शास्त्र में मन को कार्य माना है, और उपनिषदों ने भी मन को कार्य ही माना, फिर मन को नित्य से दोनों में विरोध होने से दोनों में से किस का प्रमाण माना जावेगा?
उत्तर- वैशेषिक शास्त्र पूर्व बना है, इसलिए एक दम से सूक्ष्म बातों के समझने योग्य सर्वसाधारण को जानकर सांकाल्पिक जन्म से लेकर मोक्ष तक रहने वाले मन का नित्य बतलाया और वायु के साथ समानता दिखलाई। वायु भी होने वाला है मन भी उत्पन्न होने वाला है। जैसे वायु नित्य है वैसे ही मन भी नित्य है, इसलिए कोई भेद नहीं रहता। जिस प्रकार सृष्टि के आरम्भ से लेकर अन्त तक रहने वाले वायु को नित्य बतलाया है, इसी प्रकार जन्म से लेकर मोक्ष पर्यन्त का आरम्भ होता है?
प्रश्न- क्या जन्म का आरम्भ होता है?
उत्तर- प्रवाह से जन्म आदि है, किन्तु स्वरूप से आरम्भ होता है।
प्रश्न- क्या एक शरीर में एक ही मन होता है?