सूत्र :अप्रसि-द्धोऽनपदेशोऽसन्संदिग्धश्चानपदेशः 3/1/15
सूत्र संख्या :15
व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती
अर्थ : व्याप्ति के विरूद्ध जो हुतु होगा वह हेत्वा भास कहावेगा, प्रथम तो हां व्याप्ति अप्रसिद्ध हो तो हेतु को हेत्वाभास कहेंगे। व्यांप्ति की सिद्धि प्रत्यक्ष देखने से ही हो सकती है, जहां व्याप्ति सबसे अधिक दूषित सिद्ध होती है इसलिए उसको हेत्वाभास ठहराया। दूसरे जहां व्याप्ति हो ही नहीं जिसे असम्भव कहते हैं; वह भी दूषित है वहां पर हेत्वा भास होगा। तीसरे जहां व्याप्ति संन्दिग्ध हो वहां पर भी हेतु हेत्वाभास होगा।
व्याख्या :
प्रश्न- अप्रसिद्ध किसको कहते हैं?
उत्तर- जिसमें सम्बन्ध सिद्ध न हों वा सम्बन्ध के विरूद्ध सिद्ध हो; उसे अप्रसिद्ध कहते हैं।
प्रश्न- असत्य किसको कहते हैं?
उत्तर- जो हेतु प्रतिज्ञा में विद्यमान न हो या प्रतिज्ञा गुण न हो उस सम्बन्ध को असत् कहते हैं।
प्रश्न- सन्दिग्ध किसको कहते हैं?
उत्तर- सन्देह हेतु वाले को सन्दिग्ध कहते हैं। साध्याभाव वाले में हेतु के बर्तन का नाम सन्देह हैं।
प्रश्न- ये दोष कारण से होते हैं?
उत्तर- अप्रसिद्ध तो प्रत्यक्ष के विरोध से होता, असत् सम्बन्ध कभी तो स्वरूप हानि से कभी साध्य को सिद्ध न करने की इच्छा से होता है। सन्दिग्ध सम्बन्ध कभी तो समान्य गुण को जान कर, कभी विशेष गुण का विचार करने से और कभी साध्य के अभाव वाले में हेतु के वर्तने से ये दोष उत्पन्न होते हैं।
प्रश्न- हेत्वाभास को उदाहरणों से सिद्ध करो?