DARSHAN
दर्शन शास्त्र : न्याय दर्शन
 
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सूत्र :तयोरप्यभावो वर्तमानाभावे तदपेक्षत्वात् II2/1/38
सूत्र संख्या :38

व्याख्याकार : स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती

अर्थ : यदि वर्तमान काल को न माना जावे तो भूत और भविष्य काल भी नहीं रह सकते। क्योंकि दोनों वर्तमान काल की अपेक्षा से उत्पन्न होते है।

व्याख्या :
प्रश्न-जब वृक्ष से फल गिरता है तब फल और वृक्ष के अन्तर जो समय था, उसका नाम भूतकाल और फल और भूमि क मध्य जो अन्तर है, उसके तय करने में जो समय लगेगा वह भविष्य काल है। जब कि तीसरा कोई अन्तर ही नहीं तो उसके लिए तीसरा काल अर्थात् वर्तमान किस प्रकार सिद्ध हो सकेगा। उत्तर- जिस स्थान पर फल को विद्यमान देखकर वृक्ष से फल तक और फल से भूमि तक अन्तर मानकर आत्रमणकरने के लिए भूत और भविष्य काल को मानते हो, क्या उस स्थान में अन्तर नहीं है? या उस स्थान के गुजरने में कोई समय नहीं लगता? न तो वह स्थान जहां पर फल विद्यमान है, अनन्तर हो सकता है और न ही बिना समय के उसमें गुजर हो सकता है। इसलिए जो समय वहां की स्थिति में लगता है, वही वर्तमान काल है। प्रश्न- समय क्या वस्तु है? उत्तर- समय वह है, जिसका सम्बन्ध अनित्य पदार्थों से हो और नित्य से न हो। अनित्य पदार्थों में यह इससे पहले है और यह इसके पीछे है, इस प्रकार के ज्ञान से समय की सत्ता का बोध होता है, इसीलिए जिन पदार्थों को समय की सीमा में पाते हैं उन्हें अनित्य कहते हैं और तो समय से बाहर हैं, वे नित्य कहलाते हैं। इस प्रकार पदार्थों के अनित्य और नाशशील होने से समय तीन प्रकार का है। प्रथम वह समय जो वस्तु की उत्पत्ति से पहले का था, जिसको भूतकाल कहते हैं। दूसरा वह समय जो वस्तु की उत्पत्ति का है, जिसे वर्तमान काल कहते हैं। तीसरा वह समय जबकि वह वस्तु न रहेगी इसे भविष्य काल कहते हैं। जब कि भूत और भविष्य दोनों वर्तमान की अपेक्षा से हैं, तब वर्तमान के रहने से वे दोनों भी नहीं रह सकते। वर्तमान की सिद्धि में सूत्रकार और भी हेतु देते हैं-

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